भाषा भी झर न जाए कहीं मुट्ठी से रेत की तरह

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अनूप सेठी

चित्रकार सिद्धार्थ ने एक कार्यशाला में कला के बारे में बात करते हुए बताया कि वे जब विदेश में थे, तो अचानक उन्हें मातृभाषा की इतनी हुड़क हुई कि वे पंजाबी बोलने लग गए। पहले उन्हें अपनी बोली के प्रति ऐसा कोई मोह नहीं था। पता नहीं कहां से यह प्रेम जगा कि वे विदेशियों के बीच भी ठेठ बोली बोल जाते। बेध्यानी में।

मैं कुछ ऐसे लोगों को जानता हूं जिनकी मूल भाषा एक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी तक वह भाषा एक ही ढंग से नहीं जा रही है। एक परिवार है जिसमें मियां बीवी अपनी बोली बोलते हैं लेकिन बच्चे उनकी बोली नहीं सीख पाए। परिवार का मुखिया बुद्धिजीवी है। उसके काम का माध्यम अंग्रेजी भाषा है। वह जड़ों से सीधे तो नहीं जुड़ा है लेकिन सांस्कृतिक रूप से संवेदनहीन भी नहीं है। बल्कि सांस्कृतिक समस्याओं के प्रति जागरूक है। अपने ‘मुलुक’ (मुंबई में मूल स्थान के लिए प्रचलित शब्द) के प्रति नॉस्टेल्जिक नहीं है। वह व्यवहार में साधारण और सहज है। लेकिन भाषाई अस्मिता के प्रति सजग नहीं है। शायद भाषा बतौर मुद्दा उसके सरोकारों की सूची में ही नहीं है। शायद इसीलिए उसने अपने बच्चों को अपनी भाषा सिखाने की कोशिश नहीं की। बच्चों ने मातृबोली नहीं सीखी। बच्चे उच्च वर्ग में प्रस्थान कर गए हैं। उनकी कामकाजी भाषा अंग्रेजी है, सीवान पर हिंदी है यानी बंबईया हिंदी है। यह परिवार बहुत मंहगे इलाके में रहता है। अगली पीढ़ी बस, ट्रेन जैसे सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग नहीं करती। राशन पहले बनिया भिजवा देता था, अब बच्चे माल में तफरीह मनाते हुए खुद ले आते हैं। सब्जी भाजी नौकर लाता है। उन्हें कभी-कभार लिफ्टमैन, वाचमैन या ड्राइवर से हिंदी में बात करनी पड़ती है। वैसे आमतौर पर ये लोग भी इनकी जरूरतें समझते हैं इसलिए इस तबके से संवाद की गुंजाइश कम ही रहती है। मतलब यह कि अब बड़े हो चुके ये बच्चे बाहरी संसार के लिए मौन साधे रहते हैं। मानो हवाई जहाज में अनंत यात्रा कर रहे हों जहां यात्री भूलकर भी मुंह नहीं खोलता। ये लोग अपने काम की जगह पर बोलते हैं। वहां हिंदी नहीं अंग्रेजी आम भाषा है। दोस्तों के बीच भी हिंदी मिर्च मसाले की तरह आती है। मातृ-बोली का कोई निशान भी उनकी आत्मा पर नहीं दिखता।

दूसरा उदाहरण निम्न मध्य वर्ग से मध्य वर्ग की ओर बढ़ते हुए परिवार का है। महानगर की एक बस्ती में रहने वाला अपने घर-गांव से लगातार सम्पर्क में बना रहने वाला परिवार। यानी हर साल ‘मुलुक’ जाने वाला। गांव से इसका रिश्ता इतना जीवंत है कि मौका निकाल कर वहां जाकर खेती भी कर आएगा। शहर में अपने खाने के लिए अनाज भी ले आएगा। (पहले वाले उदाहरण में गांव से नौकर लाया जाता है, अनाज नहीं)। इस परिवार की घरेलू भाषा अपनी बोली है। कामकाज की भाषा बंबईया हिंदी। अंग्रेजी तक इसकी पहुंच नहीं रही। उसने अपने बच्चों तक अपनी भाषा प्रेषित कर दी है। इसके लिए सायास प्रयास किसी ने नहीं किया। इस परिवार का मुखिया बुद्धिजीवी नहीं है। भाषा से उसका वास्ता सम्प्रेषण भर का है। अपनी बोली से उसका रिश्ता अपनी जातीय पहचान के लिए है। महानगर में भाषाई समूह से जुड़कर सुरक्षा पाने का है। उसके भी सरोकारों की सूची में भाषा नहीं है। पर वह अपनी बोली का इस्तेमाल बेध्यानी में करता है। उसकी अगली पीढ़ी अपनी बोली से हिंदी में शिफ्ट हुई है। वर्गीय स्थिति में थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है जो तीसरी पीढ़ी में ज्यादा बड़ा परिवर्तन ला रहा है। यानी तीसरी पीढ़ी अपनी बोली से परे छिटक रही है। वर्ग में थोड़ा परिवर्तन हुआ है तो तीसरी पीढ़ी के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ने लगे हैं। हालांकि इस वर्ग की हिंदी में भी नफासत नहीं है। ठेठ बंबईया खनक है और मराठी के साथ भी रिश्ता बन गया है। इनकी बाहरी दुनिया में बनिया, वाचमैन, भाजीवाला, बाबू, मास्टर, पुलिस आदि सब आते हैं। तो क्या यह कहा जा सकता है कि इस वर्ग का लोक यानी शहरी लोक के साथ रिश्ता अपेक्षाकृत गहरा है? पर अगली पीढ़ियां अपनी पहचान के लिए अपनी भाषा पर निर्भर नहीं हैं।

तीसरा उदाहरण एक ऐसे बुद्धिजीवी का है, अपनी बोली और इलाका जिसके मैनरिज्म का हिस्सा है। उसके ध्वन्यात्मक रिफ्लेक्सिज़ पचीस बरस तक महानगर में रहने के बावजूद बदले नहीं हैं। वह हिंदी अंग्रेजी पहाड़ी लहजे में बोलता है। उससे मिलकर लगता है हम भी उसके साथ अपने शहर में पहुंच गए हैं। वह दूसरे भाषाई समूह के व्यक्ति के साथ भी अपने ही अंदाज में बात करता है। उसमें ठेठ खांटीपन है। अपनी जड़ों से उसका व्यावहारिक रिश्ता है। महानगर में फ्लैट खरीद लेने के बावजूद डेरे पर रहने जैसी मानसिकता है। डेरे पर रहने वाले का एक पैर अपने वतन में होता है। इस मध्यवर्गीय बाबू की कामकाजी भाषा वैसी ही अंग्रेजी है जैसी हमारे यहां सरकारी बाबुओं की होती है। कामचलाऊ सीखी हुई भाषा। मिंया बीवी दोनों की मातृ-बोली एक है, बावजूद इसके बच्चों तक बोली नहीं पहुंच पाई है। बच्चों की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, व्यवहार की भाषा बंबईया हिंदी है। भाषा इस व्यक्ति के भी सरोकारों की कार्यसूची यानी एजेंडा पर नहीं है। भाषा से जुड़ने के कोई सचेत प्रयत्न नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक भराव के लिए कला-साहित्य से कोई रिश्ता भी नहीं है। टेलिविजन और फिल्में इस कमी की पूर्ति कर देती हैं।

चौथा उदाहरण महानगर का नहीं है। यह छोटे कस्बे का है। जहां कामकाजी भाषा हिंदी है। रौब-दाब झाड़ने की भाषा अंग्रेजी है लेकिन रोजमर्रा की घरेलू और सामुदायिक भाषा हिंदी नहीं बल्कि अपनी पहाड़ी बोली ही है। बावजूद इसके अगली पीढ़ी तक बोली पंक्चर चिपकाने जैसा मामला बन कर रह गई है। एक होड़ है, जो जरूरत और बाध्यता की तरह मां बाप को अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ठेलने को मजबूर कर देती है। अंग्रेजी भाषा हिंदी में पढ़ाई जाती है। लेकिन पाठयपुस्तकें तो अंग्रेजी में ही हैं। तोता रंटत पद्धति से इम्तिहान पास होते हैं। नई पीढ़ी हिंदी का पल्ला तो पकड़े रहती है लेकिन बोली छूटती जाती है। इस परिवार का मुखिया भी बुद्धिजीवी है। भाषा इसके भी सरोकारों की सूची में नहीं है।

इन सभी उदाहरणों के वर्ग भिन्न भिन्न हैं। काम के दायरे भिन्न हैं। सोच और सरोकार के इलाके और स्तर भिन्न हैं। सिर्फ पहले उदाहरण में कलाओं के प्रति उच्चभ्रू (हाइ ब्रू) वर्ग वाली दिखावटी दिलचस्पी है। दूसरे उदाहरण में कला की जगह ही नहीं है। हां वहां लोककला की जगह है। खुद की पहचान के तौर पर। तीसरे और चौथे उदाहरण में सिर्फ महानगर और नगर में रहने का भौगोलिक अंतर है। और कोई अंतर नहीं है। दोनों जगह यांत्रिक किस्म की दौड़ है।

इन तीनों उदाहरणों में व्यक्तित्व की आंतरिक समृद्धि के लिए धार्मिक शिक्षा एक बड़ा मूल्य है। इस शिक्षा की पाठ्यपुस्तकें हनुमान चालीसा और आरती हैं। रामचरितमानस का अखंड पाठ और सत्य नारायण की कथा इनकी कक्षाएं हैं। तमाम नैतिक शिक्षाएं शास्त्र के नाम पर दी जाती हैं। लेकिन व्यावहारिक जीवन में इस नैतिक शिक्षा को ताक पर रख दिया जाता है। सफल हो जाओ तो मय-प्रसाद भगवान को धन्यवाद दो। असफलता का भय हो तो प्रसाद की मन्नत मान लो। इन्हीं अनुष्ठानों को सांस्कृतिक शिक्षा मान लिया जाता है। संस्कारी व्यवहार। पहले उदाहरण में धर्म से एक दूरी है। सोची समझी। दिखावटी। सजावटी। व्यक्तित्व की कंदराओं में झांकेंगे तो धर्मभीरुता का अंधकार पसरा मिलेगा। (उस स्तर पर चारों उदाहरण एक जैसे ही हैं।) धर्म से लटकने या उस पर आश्रित होने की मजबूरी नहीं है। क्योंकि समाज में वह असुरक्षित नहीं है। उसके पास कई तरह की शक्ति है। अमीरी की, उच्च शिक्षा की, रसूख की। वह एक तरह से सत्ता के केंद्रों के करीब है इसलिए वह धर्म का प्रयोग स्वेच्छा से करता है। कंडीशन्ड होकर नहीं। मजबूरी में तो बिल्कुल ही नहीं। यह छूट उसे प्राप्त है। लेकिन धर्म आंतरिक जगत में कब्जा जमाए बैठा ही रहता है। यूं बाहर भी काफी जगह घेरता है। धर्म इनका सुरक्षा कवच है। जैसे चापलूसी एक सुरक्षा कवच है। वहां कला और साहित्य के प्रति कोई जगह नहीं है। कला की तुष्टि कलैंडरों और फिल्मों और फिल्मी पत्रिकाओं से हो जाती है। साहित्य नदारद है। भाषा का मसला कहीं उठता ही नहीं है।

यह अजीब सी खुमारी हिंदी पट्टी पर तारी है। बंगला, मलयालम, मराठी, गुजराती, तमिल भाषी के साथ ऐसी बात नहीं है। बंगला और मलयालम भाषी शायद सबसे ज्यादा सजग है। हरेक बंगाली रवींद्र जयंती और सरस्वती पूजी के आयोजन में हिस्सा लेगा। जयशंकर प्रसाद और निराला को तो छोड़िए, यह भी जरूरी नहीं कि हर हिंदी भाषी ने प्रेमचंद का नाम भी सुना हो। जब हिंदी ही पचौह्ले (बैक बर्नर) पर है तो पहाड़ी कहां होगी, आसानी से समझा जा सकता है।

भाषा का प्रयोग हम सोते जागते हर वक्त करते हैं। नींद में सपने भी तो हम अपनी भाषा में ही सुनते हैं। जागते में तो भाषा का व्यवहार करते ही हैं, उसी के प्रति हम कितने अनजान, लापरवाह और उदासीन हैं। जब हम शरीर का बेजा इस्तेमाल करते हैं, बिना सोचे समझे, तो वह भी बीमार पड़ जाता है। जब हम भाषा का भी बिना सोचे समझे प्रयोग करते जाएंगे, तो वो भी कहां तक साथ देगी। वह धीरे धीरे कमजोर पड़ती जाएगी। बदले में हम ही थोड़े कमजोर इंसान होते जाएंगे। हमें पता नहीं चलेगा लेकिन हमारे भीतर धीरे धीरे करके कुछ जीवन द्रव झरता जाता है। इसका मतलब है हमारे समाज की दो तीन सक्रिय पीढ़ियों में भाषा का यह क्षरण चुपचाप चलता रहेगा। उसके बाद आने वाली पीढ़ियों में यह क्षरण और बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा।

भाषा की जरूरत हमें हर वक्त रहती है। अगर हम उसी के प्रति उदासीन रहेंगे तो बाकी चीजों के बारे में क्या कहना जो हमें बेहतर इंसान बनाती हैं, या जरा ठहर कर सोचना सिखाती हैं। जैसे संगीत, जैसे चित्र यानी रंग और रेखा। हम उसके जादू को ही भूल जाएंगे। अगर हम अपने भीतर इन चीजों के लिए जगह नहीं बनाएंगे तो भीतर बाहर में फर्क ही क्या रह जाएगा। अगर आभ्यंतर ही मर गया तो बचेगा क्या।

जब हमारे आसपास की सारी दुनिया अपरिचित, अजनबी और बिना आभ्यंतर के हो जाए तो क्या पता चित्रकार सिद्धार्थ की तरह किसी वक्त मां-बोली का सोता फूट पड़े और हम अपनी भाषा में खुद को व्यक्त करने के लिए छटपटाने लग जाएं, अपनी भाषा को बचा लेने के लिए अपने भीतर गहरी छलांग लगा लें। खुद को पा लेने के लिए भाषा की शरण में चले जाएं। कितना अच्छा हो अगर यह बस अभी से होना शुरू हो जाए।

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3 COMMENTS

  1. अनूप जी.. बहुत ही बढ़िया विश्लेषण रहा.

    यहाँ हमारे पहाड़ी समाज में भी बहुत बदलाव आया है. अंग्रेजियत की दौड़ में अपनी बोली काफी पीछे छूट गयी है. अब समय ही ऐसा है कि आप फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोलते हैं तो जीवन कि दौड़ में पीछे रह जाते हैं. यहाँ शहर में अंग्रेजी स्कूल में पढने वाले बच्चे ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाते तो पहाड़ी की तो बात ही क्या. अपनी बोली से जुड़ने में हमारे जातर, शादियाँ, मेले एक अहम् भूमिका रखते हैं. समय के साथ इनका स्वरुप भी बदला है. शादियों और जातर में गाये जाने वाले लोक गीतों पर अब रीमिक्स का तड़का लग गया है. एक ठेठ पहाड़ी गीत (रीमिक्स) के बीच में अचानक "मैं तो रस्ते से जा रहा था.. भेल पूरी खा रहा था" जैसे शब्द सुनने को मिल जाते हैं. यहाँ आधे लोगों को भेल पूरी का मतलब भी मालूम नहीं है. भेल पूरी को शायद हलवा पूरी समझा जाता है. वैसे बदलाव नियम है. इस से बचा नहीं जा सकता. बाकि भाषाएँ / बोलियाँ शायद इस लिए भी बची हैं क्योंकि उनकी अपनी लिपि है. पहाड़ी भाषा केवल बोलचाल में ही है. हम कब हिंदी भाषी से आधे अधूरे अंग्रेजी भाषी बन गए यह कोई नहीं जानता.

    एक बार फिर से इस आलेख के लिए साधुवाद!!

  2. आपके विचार जान कर अच्छा लगा सचमुच हमारी स्थिति – कव्वा चला हंस की चाल , अपनी भी भूल गया- वाली है भाषा के साथ साथ सांस्कृतिक तौर पर भी हम दिवालियेपन के शिकार हो चुके हैं. इस उत्तम लेख के लिए बधाई.

  3. "Kos- Kos per badle paani ; char kos per vaani ! " Earlier mankind used to communicate by symbols, pictures etc. which translated into myriad languages…dialects…over a period of time.And also resulted in state divisions in India on lingual basis creating more chasms than bridges but in our State the 'fight' is to have a common language ! Art , Cinema ,Dance, Music , Love know no lingo if communicating is what is intended but alas in our times linguistic duel is the very reason to save that very culture! If today India is a 'dada' in the IT world it's because of…look at Japan,China,France…no Eng know little.Eng is the library lang of the world.The Sun still hasn't set on British empire.O.K. "HONOUR" turns red and shows "HONOR "…isko "izzat" ka prashan nahin banayen! Eng ruled, it's the turn of Comps! My wasted youth.

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