हिमाचल में वन प्रबन्धन में जन भागेदारी

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द्वाराः कुलभूषण उपमन्यु

भारतवर्ष में सरकार द्वारा वनों के प्रबन्धन का युग अंग्रेजों के भारत के कब्जे के बाद शुरू होता है। इससे पहले राजा वनों से इमारती लकड़ी आदि का व्यापार नहीं करते थे, कृषि भूमि से लगान लेते थे जो राज्य की आय का मुख्य साधन था, वनों पर मामूली सरकारी नियंत्रण होता था और परंपरागत अधिकारों और व्यवस्था के तहत स्थानीय समुदाय आजीविका के लिए वनों का उपयोग करते थे।

अंग्रेज अपने साथ वनों पर सख्त सरकारी नियंत्रण का मॉडल ले कर आए। १८६४ में वन विभाग की स्थापना की गई और पहला वनाधिकारी एक पुलिस अफसर को बनाया गया, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वन विभाग की स्थापना का कारण किसी वैज्ञानिक वन प्रबन्ध को शुरू करना नहीं बल्कि पुलिसिया सख्ती से समृद्ध वन संपदा पर  कब्जा करना था। मालाबार से आरंभ होकर यह व्यवस्था हिमालय तक फैल गई। पहले जहाज उद्योग, फिर रेलवे के विस्तार के लिए वनों का भारी कटाव  किया गया। इसमें प्रथम व द्वितीय  विश्व युद्ध की जरूरतें और औद्योगिक कच्चे माल की मांग भी जुड़ गई। इस प्रकार व्यापार योग्य प्रजातियों का भारी कटान हुआ। बड़े पैमाने पर इमारती लकड़ी और औद्योगिक कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले वृक्षों का रोपण जब सरकारी स्वार्थ और राजस्व प्राप्ति के लिए मुख्य वानिकी उद्देश्य बन गया तो धीरे धीरे वैज्ञानिक वानिकी का विकास हुआ, किंतु यह वैज्ञानिक वानिकी कुछेक व्यापारिक प्रजातियों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही और बड़े पैमाने पर मिश्रित प्राकृतिक वनों को इमारती लकड़ी के खेतों में बदल दिया गया। इस प्रक्रिया से बहुत बड़े भूखंड संरक्षित और आरक्षित  वन घोषित कर दिए गए और इसमें स्थानीय समुदायों, वन वासियों, आदिवासियों, पशुचारकों और दस्तकारों के अधिकार समाप्त कर दिए गए। यहीं से आम जनता का वन विभाग से लंबे टकराव का इतिहास भी आरंभ हुआ। १८९० में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ विद्रोह, १९११ का बस्तर विद्रोह इस टकराव का प्रखर उदाहरण है। गढ़वाल कुमायुं में भी लम्बे संघर्ष के बाद वन पंचायतों की स्थापना करवाने में आंदोलन सफल रहा है। करीब-करीब इसी तरह की पृष्ठभूमि में कांगड़ा वन सहकारी सभाएं’ और ऊना में चो रिक्लामेशन सहकारी सभाएं’ अस्तित्व में आई। वन विभाग ने आरंभिक टकराव से सीखते हुए लोगों का सहयोग लेने के लिए भी उपरोक्त प्रयास किए हुए लगते हैं।

१९७० के दशक में हुए चिपको आंदोलन ने पर्यावरण संरक्षण  के लिए वनों का महत्व और स्थानीय समुदायों की  आजीविका के लिए वनों पर निर्भरता के मुद्दों को वन प्रबन्धन की बहस के केन्द्र में ला दिया। तब से आज तक वानिकी क्षेत्र को नई दिशा देने के कई प्रयास हुए हैं।  जिनमें १९८८ की नई वन नीति एक अहम पड़ाव है। इसके तहत परिस्थिति संतुलन, जैव विविधता, संरक्षण और स्थानीय समुदायों  और आदि वासियों की आवश्यकताओं को पूरा करना वानिकी का मुख्य उद्देश्य घोषित किया गया, जिसके चलते परियोजना आधारित कई अच्छे अच्छे प्रयास किए गए। फिर भी छिटपुट सफलताओं के अलावा ऐसी विश्वसनीय व्यवस्था वन प्रबन्ध के लिए विकसित नहीं हो सकी है जो वन विभाग और स्थानीय समुदायों की आपसी समझ और विश्वास पर टिकी हो।  इन प्रयासों को ऐसी विश्वसनीय वन-प्रबन्धन व्यवस्था विकसित करने तक ले जाना होगा, जो स्थानीय जरूरतों  और व्यापक चिंताओं में संतुलन साध सके और कारगर हो।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दो स्तरों पर कार्य करना होगा। एक तो विभिन्न परियोजनाओं और आंदोलनों के अनुभवों से लगातार तर्क सम्मत सीख हासिल करने की कोशिश और व्यापक विचार मंथन करके कारगर सामुदायिक संगठन बनाना। दूसरा १९२७ के वन अधिनियम को धीरे-धीरे प्रयोगों परियोजनाओं ओैर आन्दोलनों की सीख के आधार पर बदलने की प्रक्रिया द्याुरू करना । १९२७ का वन अधिनियम इतना पेचीदा और  व्यापक दस्तावेज है कि उसे एकमुश्त बदलने के दो प्रयास असफल हो चुके हैं। भारत इतना बड़ा  और विविधतापूर्वक देश है कि उसके सब भागों की समस्याओं को एक  दस्तावेज में एकमुश्त समेटने में कई महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी भी  हो सकती है। इसलिए क्रमशः एक प्रक्रिया के रूप में ही इस अधिनियम को बदलना होगा क्योंकि यह स्थानीय समाज के प्रति विदेशी शासकों के पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। यही वजह है कि सामुदायिक वानिकी के कार्य में हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है, बहुत से अच्छे सफल वन रोपण वाले रकबे भी उजड़ना शुरू हो गए हैं। इस स्थिति से निपटने की पहल करने वाला कोई संगठन जो जवाबदेह हो, मौजूद ही नहीं है।

साभारः दैनिक जागरण .

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  1. Himachal Pradesh is the first state in country which has imposed a ban on green felling. In such a situation, the total forests area and its density should increase in the state. But the reality is somewhat different. Between the years 2001 and 2003 alone, dense forest cover declined by 10% and contributed to increase in open forest cover. In addition to it, about 7 hectares of forest cover was also lost during this period. These scientific estimates by Forest Survey of India are very serious in nature. People at the helm of affairs only want to get first position in the country without having any proper implementation strategy for checking deforestation and forest degradation. They perhaps do not want to understand and highlight the difference in degree of damage done by the native households and the politically powerful “Forest Mafias”.

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