जनसहभागी प्रजातंत्र और प्रकृति: प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन में पंचायतों की अहम भूमिका

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द्वारा: कुलभूषण उपमन्यु

तमाम तरह की शासन व्यवस्थाओं के बीच आज के युग में प्रजातंत्र का विशेष स्थान बन गया है। प्रजातंत्र शासक की तानाशाही प्रवृति पर अंकुश लगाता है और व्यवस्था को लोगों की जरूरतों के अनुकूल ढालने की कोशिश करता है। इसके लोगों की जरूरतों के अनुकूल न रहने पर चुनाव के समय शासक दल और शासक व्यक्ति को जनता बदल सकती है। शाासक के दिल में बदले जाने का डर ही उसे जनता की भावनाओं की कद्र करने पर मजबूर कर देता है।

विचार की स्वतंत्रता के कारण शासन व्यवस्था की कमियों को प्रकट करने का अधिकार सुधार की प्रक्रिया में मददगार हो जाता है। प्रजातंत्र के दो प्रकार प्रचलित हैं – प्रत्यक्ष प्रजातंत्र और अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र। प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में नागरिक निर्णय करने के अधिकार से लैस रहता है। चुने हुए प्रतिनिधि कोई ऐसा कानून बना दें जो जनता को देशहित व जनहित में गलत लगता है तो मतदाता उसे रद्द कर सकते हैं या चुने हुए प्रतिनिधि किसी जरूरी कानून को बनाने में आनाकानी कर रहे हों तो मतदाता ही उस कानून को पास करने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं। कोई प्रतिनिधि जनता की इच्छा के अनुरूप काम न कर रहा हो तो मतदाता बहुमत से उसे कार्यकाल के बीच में ही वापस बुला सकते हैं। यानी प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में मतदाता का सीधा नियंत्रण प्रतिनिधि और उसके कामों पर रहता है।

अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र में हम शासन चलाने के लिए प्रतिनिधि चुनते हैं। चुने हुए प्रतिनिधि निर्धारित समय के लिए काम करते हैं। यदि उनका काम जनता को अच्छा न लगे तो अगले चुनाव में उनको बदला जा सकता है। मगर प्रतिनिधि स्वभाव से प्रजातांत्रिक न हो तो वह अपने कार्यकाल में तानाशाह जैसे कार्य भी करने लग जाता है। इन खतरों को देखते हुए ही गांधी जी ने प्रतिनिधि प्रजातंत्र के बजाए पंचायती राज व्यवस्था की कल्पना की थी, जिसमें जनता प्रत्यक्ष प्रजातंत्र के तरीके से अपना शासन गांव स्तर पर खुद चलाए। ७३वें संविधान संशोधन के बाद उस दिशा में कुछ -कुछ कार्य हुआ और पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। चुनी हुई कार्यकारिणी की शक्तियां इसे अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र बनाती है। प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में निर्णय प्रक्रिया में जनता की सहभागिता निर्णायक होती है। चुनी हुई कार्यकारिणी जनता के निर्णय को बदल नहीं सकती। प्रजातंत्र में जनता की निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता बहुत जरूरी है, क्योंकि तभी जनता को लगता है कि देश-समाज का काम हमारा अपना काम है। जनता जिम्मेदार बनती है और शासन व्यवस्था भी उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य करती है, इसलिए शोषण और क्रूरता की स्थितियां भी कम होती जाती हैं।

पंचायती राज व्यवस्था में हम धीरे धीरे प्रत्यक्ष प्रजातंत्र और जन सहभागी निर्णय प्रक्रिया की ओर बढ़ रहे हैं, इसलिए पंचायती राज व्यवस्था हमारे प्रजातंत्र को सही दिशा देने वाले आधार स्तंभ की तरह विकसित हो रही है। पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम सभा की शक्तियों में बढ़ोतरी से ही इसे ज्यादा प्रजातांत्रिक बनाया जा सकता है। नागरिक और मतदाता को ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी निभाने की योग्यता सिद्ध करते जाने से शक्तियों में बढ़ौतरी के लिए दबाव बनाने का नैतिक अधिकार प्राप्त हो जाएगा। नैतिक अधिकार को नकारना किसी के लिए भी आसान नहीं होता है। पंचायती राज व्यवस्था को हिमाचल प्रदेश में १५ विभागों से संबंधित शक्तियां प्रदान की जा रही हैं। हालांकि अभी ये शुरूआती किस्म की हैं, किंतु धीरे-धीरे इनका बढ़ना रोका नहीं जा सकता। कृषि बागवानी और पानी एवं पशु प्रबन्धन में पंचायतों की कुछ भूमिका की शुरूआत होने की उम्मीद बंधी है। अब देखना है कि पंचायतों की भूमिका प्रभावशाली होती है या केवल दिखावा है। प्रकृति प्रबंधन के लिए जल, जंगल, जमीन और उससे जुड़ी गतिविधियों और आजीविका से संबंधित व्यवस्था में पंचायती राज की विशिष्ट भूमिका होनी चाहिए, विशेषकर जनसहभागिता को निर्णय प्रक्रिया में स्थान देना चाहिए, क्योंकि ये जीवनदायी संसाधन हैं और दूरदराज तक बिखरे पड़े हैं।

समाज यदि इनके बारे जागरूक हो कर इनके प्रबंधन में सहयोग न दे तो इन संसाधनों का संरक्षण अकेले विभागीय लोगों की जिम्मेदारी रह जाएगा। अतः ग्राम सभाओं के माध्यम से इन संसाधनों के संरक्षण की योजना और संसाधनों के आधार पर आजीविका की योजना साथ साथ बननी चाहिए। जब स्थानीय समुदाय को पता होगा कि इन संसाधनों से हमारी ही आजीविका सुनिश्चित हो रही है, हम खुद ही पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत ऐसी योजना बना रहे हैं और इस योजना को लागू करने का निर्णय भी कर रहे हैं, तब यह संसाधन सामुदायिक स्वामित्व की तरह समझे जाएंगे। ऐसी सामुदायिक स्वामित्व की भावना का विकास इन संसाधनों की सुरक्षा की गारंटी होगा। पंचायत न्यायिक शक्तियों से ली लैस संस्था है इसलिए सामुदायिक संपत्तियों की रक्षा के लिए, उसे चुस्त दुरूस्त बनाने के लिए उपयुक्त, अतिरिक्त न्यायिक शक्तियां भी दी जा सकती हैं। विभिन्न परियोजनाओं द्वारा निर्मित संपत्तियां भी रख-रखाव और सुरक्षा की दृष्टि से पंचायतों के हवाले की जानी चाहिए, वरना परियोजना समाप्ति के बाद उनकी देखभाल करने वाली कोई व्यवस्था नहीं होती, नतीजतन मेहनत से बनाई गई संपत्तियां नष्ट हो जाती हैं। सामाजिक न्याय के कर्तव्य के चलते इन संसाधनों से ज्यादा जरूरतमंद लोगों के हितों का विशेष ध्यान रखने की व्यवस्था भी पंचायतों के माध्यम से संभव है।

कई बार जातीय या बिरादरी पंचायतों को देखकर पंचायती राज पर शंका जाहिर की जाती है कि सामाजिक न्याय को पंचायतों की कार्यप्रणाली से नुकसान हो सकता है। किंतु बिरादरी पंचायतों का इन पंचायतों से कोई लेना-देना नहीं। हिमाचल प्रदेश में तो वैसे भी बिरादरी पंचायतें अप्रासंगिक हो चुकी हैं। इसलिए निर्भय होकर पंचायतों को प्रकृति प्रबन्धन में ज्यादा से ज्यादा शक्तियां दी जाएं और उनकी मदद के लिए प्रशिक्षित प्रशासन व्यवस्था और उपयुक्त आर्थिक साधन देकर इस बहुत बड़ी चुनौती को सफलतापूर्वक पूरा कर सकते हैं।

साभारः दैनिक जागरण .

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  1. well said upmanyu ji.Panchayati raj is slowly but surely taking shape. at present it seems the apathy of the people themselves-arising from lack of complete credibility of the system-is stalling its growth.the only remedy lies in continued strenghenthening of the pr system based on the conviction in its ability to bring real democracy.this goal must be the guiding light for all policy initiatives.every small success will build the confidence of the people of their ability to self govern.

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