द्वाराः कुलभूषण उपमन्यु
विशाल और विविधता से भरी भारतीय संस्कृति, प्रकृति के साथ मनुष्य से संबंधों के बारे में बड़ी जागरूक रही है । यह संबंध बड़ा अटूट और वैज्ञानिक आधार से परिपुष्ट रहा है । मनुष्य प्रकृति के अंदर ही पैदा हुआ और अपनी बौद्धिक ताकत के बल पर प्रकृति को प्रभावित करने की सबसे ज्यादा ताकत रखता है । प्रकृति को संभालते हुए समझदारी से जीवन जीते हुए मनुष्य जब प्रकृति को संस्कारित करता है, उसके अनघड़ रूप को निखारता जाता है तो पैदा होती है संस्कृति । संस्कृति की इस व्युत्पत्ति की परतें हमें सच को करीब से देखने के लिए उत्साहित भी करती है ।
लेकिन इसके विपरीत मनुष्य प्रकृति को रौंदते हुए घमंडी और स्वार्थी जीवन जीने लग जाता है तो पैदा होती है विकृति । मनुष्य का कर्तव्य है कि वह विकृति को अस्वीकार करते हुए संस्कृति की ओर बढ़े । प्रकृति के साथ रिश्तों के मामले में भारतीय संस्कृति के इस व्यापक संदेश को चंबा की प्राचीन भूमि में भी गहराई से समझा गया और विकसित किया गया है । अप्रैल २००५ में हुए सहस्राब्दी समारोह का कारण केवल यह नहीं है कि अमुक शहर ने हजार वर्ष पूरे कर लिए थे । इसके पीछे कुछ वैज्ञानिक आधार है जो किसी भी जागरूक नागरिक को इस उत्सव की गरिमा के साथ जोड़ता है । कदम-कदम पर ऐसे रस्म रिवाज और ऐसी सोच आज भी देखने को मिलती है जिसमें प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर भाव जगा कर, प्रकृति संरक्षण के विचारों को जिंदा रखकर कारगर तरीके से प्रकृति संरक्षण का कार्य होता रहता है ।
मनुष्य समाज में सबके हितों को ध्यान में रखकर जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार पैदा करने से ही समाज का विकास होता है, उसमें सुख, शांति, समृद्धि और संतोष की स्थापना होती है । ऐसा जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार दो तरीकों से ही बनाया जा सकता है । एक अन्दर से अपनी समझदारी के बल पर और दूसरा कानून के डंडे के बल पर । जब अंदर से जिम्मेदारी की भावना स्थापित होती है तो उसी को हम संस्कृति कहते हैं । सभ्य समाज में कानून का होना बहुत जरूरी है । किंतु कानून से होने वाले कामों में दूसरे के भय के बलबूते काम होता है । कानून से आंख बचाकर कुछ गलत कर भी लिया तो कौन पूछेगा । किंतु संस्कृति तो अंदर से कार्य करती है । आदमी अपना खुद पहरेदार बन जाता है, इसलिए गलती की संभावना बहुत कम होती है । केवल एक ही सावधानी बरतनी जरूरी होती है कि संस्कृति के नाम पर कुछ गलत चीजों या बातों को ही हम पकड़ कर न बैठ जाएं । यानि संस्कृति के घर में जहां भी विकृति की घुसपैठ हुई उसकी तत्काल कांटछांट या संशोधन होता रहना चाहिए । इस कार्य में वैज्ञानिक सोच का उपयोग होना चाहिए । जब एक बात ठीक सिद्ध हो गई तो उसे संस्कृति के रूप में अंगीकार करना चाहिए ताकि कानून के डंडे के बोझ से नहीं बल्कि पक्की समझ के बल पर एक अच्छे संस्कार को हम जीवन में ढाल सकें । संस्कार जब पक्का हो जाता है और सर्वमान्य हो जाता है तो संस्कृति बन जाता है । जिसकी ताकत से हंसी खुशी बड़े बड़े काम आसानी से होते रहते हैं । यही संस्कृति की ताकत का दर्शन है । इसी समझ से संस्कृतियों का विकास हुआ है । प्रकृति संरक्षण विचार के मामले में चम्बा की संस्कृति बहुत समृद्ध रही है । जल, जंगल, जमीन और जैव विविधता के संस्कारों से लोक-संस्कृति भरी पड़ी है । उदाहरण के लिए पानी को ही लीजिए, पानी को देवत्व प्रदान करके पूजा जाता है । पानी में गंदगी करना पाप माना जाता है । इसी श्रद्धा भाव से पानी का संरक्षण और शुद्धता का भाव रखा जाता रहा है । इसी भाव को विभिन्न तरीकों से सुंदरतापूर्वक प्रकट किया गया है । पनिहारों पर पनघट शिलाओं की स्थापना करना, शेष नाग की मूर्ति स्थापित करना या अपने पूर्वजों की याद में उनकी प्रतीक मूर्ति बनाकर पनघट पर रखकर मृत्यु के बाद एक साल तक उसे जल चढ़ाने की प्रथाएं आज भी जिंदा हैं । विवाह आदि मंगल कार्यों में पूजा से पहले पनिहार पर जाकर पानी की पूजा की जाती है । फिर पानी को निमंत्रण दिया जाता है, मंगल उत्सव के लिए और प्रतीक स्वरूप पानी का कलश दूल्हे या दुल्हन का मामा भरकर घर ले आता है ।
यह कार्य प्रातःकाल चिड़ियों के कलरव के बीच, इसी मौके के लिए बनाए गए लोकगीतों के साथ महिलाओं की अगुआई में जब किया जाता है तो समां बंध जाता है और पूरी संस्कृति के प्रति पवित्र भावना का उदय होता है । ये सारी प्रक्रियाएं अपने आप में एक ऐसी संस्कृति की द्योतक हैं, जिसके पीछे वैज्ञानिक आधार है । चंबा या इसके आसपास के क्षेत्रों में विवाह अवसर पर परोसे जाने वाले व्यंजन तक स्वास्थ्य की दृष्टि से कुछ आधार लिए होते हैं । संस्कृति कभी भी जीवन पद्धति से अलग नहीं हो सकती ।
वनस्पति संरक्षण की दृष्टि से कितनी ही उपयोगी प्रजातियों जैसे तुलसी, पीपल, बड़, पलाश, दाड़िम (दाड़ू), आम, बिल, सहस्रपाद आदि पेड़ों की पूजा अलग-अलग समय पर की जाती है । जीवनकाल में एकाध पीपल का पेड़ लगाकर उसे टाला लगवा कर प्रतिष्ठा करना बड़ा पुण्य माना जाता है । मृतक की याद में एक वर्ष तक पीपल को पानी देना श्रेष्ठ सेवा मानी जाती है । तुलसी जैसी महा औषधी तो घर का जैसे एक सदस्य ही है । बरसात में नाग पंचमी के नाम पूजा और भादों में बैल की पूजा पशुओं व वन्य प्राणियों के प्रति स्नेह का प्रतीक है । विवाह के उपरांत आम और दाड़िम एक साथ हों उनकी पूजा की जाती है । प्रकृति से शिक्षाप्रद प्रेरणा लेने का यह प्रयास कितना सुन्दर है कि जीवन के अनुभव खट्टे-मीठे दोनों तरह के होते हैं । केवल मीठा और केवल खट्टे से भी मन भर जाता है । किंतु मीठा आम और खट्टा दाड़िम जिंदगी को लगातार स्वाद बनाए रखते हैं ।
इस तरह अलग-अलग देशो में कई रसीले सांस्कृतिक प्रतीक भरे पड़े हैं।जरूरत है तो उन्हें समझ कर श्रद्धापूर्वक आत्म अनुशासन विकसित करने की, आधुनिकता और वैज्ञानिकता के अहंकार में कई बार हम संस्कृति की अच्छाई को भी पुरातनपंथी कहकर अस्वीकार कर देते हैं, जबकि जरूरत तो यह है कि उसके वैज्ञानिक आधार को सम्मानपूर्वक देखा जाए । आधुनिकता को भी हेय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए । लेकिन ऐसा भी न हो कि हम आगे बढ़ने की होड़ में कुछ अच्छा भी खो दें ।
साभारः दैनिक जागरण