द्वाराः कुलभूषण उपमन्यु
पर्वतीय राज्यों में हिमाचल प्रदेश एक अच्छे विकासशील राज्य के रूप में उभर रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बागवानी और प्रति व्यक्ति आय जैसे कई मानदंडों पर प्रदेश अग्रणी है या अग्रसर है। प्रदेश की जल विद्युत क्षमताओं का पूरा दोहन करके और औद्योगिकरण की ओर लंबे डग भरने के प्रयास हो रहे हैं और रूपहले भविष्य का सपना दिखाया जा रहा है।
निःसंदेह हिमाचल प्रदेश की प्रगति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस प्रगति में कई तत्वों का योगदान रहा है। जिसमें भूमि सुधार कानूनों को सफलतापूर्वक लागू करना, प्रदेश का शांत वातावरण और राजनीति का मुकाबिलतन कम भ्रष्ट होना और अधिक जनाभिमुख होने जैसे कारण भी हैं जिसका श्रेय बहुत हद तक पहाड़ी समाजों की सरलता, सटीकता, मेहनती स्वभाव और समयानुकूल ढलने की सजगता को भी जाता है। यह सब कुछ देख कर आधी सदी पहले के और आज के हिमाचल को तुलनात्मक रूप से देखना बहुत अच्छा लगता है। गर्व भी होता है।
किंतु इस चित्र का दूसरा पहलू भी है, जिसे देखकर चिंता होती है कि भविष्य में विकास की गति को बनाए रखना और विकास का आधार जल, जंगल, जमीन को विनाश से बचाए रखना लगातार कठिन होता जा रहा है। अतः जरूरी है कि अनावश्यक हड़बड़ी से बच कर थोड़ा नए सिरे से सोचें और आज की जरूरतों के अनुसार विकास को ऐसी दिशा प्रदान करें जो टिकाऊ विकास लाने में सक्षम हों। लोगों को रोजी रोटी देने वाले जो महत्वपूर्ण कार्य हुए उनमें सरकारी नौकरी, बागवानी व सब्जी उत्पादन और पर्यटन को मुख्य माना जा सकता है, किंतु अब स्थिति यह है कि सरकारी नौकरी में और ज्यादा लोगों को खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि राज्य के बजट का ७४ प्रतिशत केवल इसी वर्ग को बनाए रखने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खर्च हो रहा है। इस खर्च को कम करने की जरूरत और दबाव सामने आ गए हैं। प्रदेश १५००० करोड़ रूपए से ज्यादा के कर्ज में डूब चुका है और यह कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है। पर्यटन का जो मॉडल खड़ा हो रहा है, वह पांच तारा पर्यटन की दिशा में ही आगे बढ़ रहा है, जिसमें बड़े खिलाड़ी (देशी और विदेशी) ही मुख्यतः लाभांवित हो रहे हैं। जल विद्युत परियोजनाओं मे आम आदमी ने खोया ज्यादा है, पाया कम है। औद्योगिकरण के मॉडल की बात करें तो उसका भी केमोवेश यही हाल है। इनमें दो ढाई हजार से ज्यादा की नौकरी हिमाचलियों के हिस्से नहीं आती, होटलों में वेटर जैसे काम से आगे नहीं बढ़ सके। आज का हिमाचली पढ़ा लिखा इस तरह के कामों को मजबूरी में ही ढोता है क्योंकि यहां उड़ीसा, बिहार जैसी भुखमरी नहीं, यहां दूसरी पीढ़ी या स्तर के विकास की अपेक्षा व आकांक्षा है। जिसका लक्ष्य न्यूनतम मजदूरी नहीं, बल्कि सम्मानजनक रोजगार है। पढ़े लिखे १० लाख बेरोजगार इसलिए नौकरी की लाइन में लगे हैं। अब सवाल यह है कि सम्मानजनक रोजगार कहां और कैसे खड़े हों, तो सीधा सा उत्तर है कि इस वर्ग को उत्पादक क्षेत्रों में उद्यमियों के सक्षम बनाना होगा, ऐसी उद्यमिता जो पर्वतीय क्षेत्र का वासी (हिमाचली) सहज रूप से सफलता पूर्वक अपना सके। इसका स्तर वर्तमान में जिस स्तर के बहुराष्ट्रीय या राष्ट्रीय उद्यमों को हम अपने प्रदेश में चाह रहे हैं उससे बहुत छोटा होगा परंतु संख्या काफी ज्यादा होगी। जिन बड़ी कंपनियों पर हम आस टिकाए बैठे हैं कि वे यहां आएं और हमारे बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करें, असल में उनका लक्ष्य बेरोजगारी का समाधान है ही नहीं, उनका लक्ष्य मुनाफे को बढ़ाना और पर्वतीय क्षेत्रों के अछूते संसाधनों का निर्बाध दोहन है। विशाल जल विद्युत परियोजनाओं के पास हमारी नदियां एक तरह से बिक गई हैं और छोटी खड्डें २ से ५ मैगावाट के बिजलीघरों के मालिकों के पास बिक गई हैं। स्की विलेज जैसे प्रस्ताव भी इसी सोच की उपज हैं। एक तो ये कंपनियां या वृहद् विकास एजेंसियां जो मॉडल यहां ला रही हैं, वे हमारे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवेदनशीलता के अनुकूल ही नहीं है। इसलिए यह मॉडल टिकाऊ विकास नहीं ला सकता। दूसरे इसमें हिमाचली उद्यमी के लिए कोई स्थान ही नहीं है।
सच यह नहीं कि हिमाचली आदमी में उद्यमशीलता का अभाव है, बल्कि यह है कि हिमाचली उद्यमी की आर्थिक पहुंच से यह मॉडल बड़ा है। माइक्रो हाइडल की बात जब २ और ५ मैगावाट से चलती है, उसका अर्थ है १० से ५० करोड़ रूपये का निवेश, शायद यह हमारे स्तर से बहुत बड़ा है। किंतु यदि बात २० किलोवाट, ५० किलोवाट या १०० किलोवाट की की जाए तो निवेश का स्तर १०-२५ और ५० लाख आ जाता है। हिमाचल में एक अच्छा खासा मध्यम वर्ग है। जिसमें रिटायर्ड कर्मचारी, स्थानीय निवासी शामिल हैं। बागवान भी इस श्रेणी में आ सकते हैं जो सहर्ष निवेश कर सकते हैं। हजारों इंजीनियर बेरोजगार हैं। निजी, संयुक्त या सहकारी उद्यमों द्वारा उन्हें ही इस कार्य में लगाया जा सकता है। प्रदेश बिजली बोर्ड के पास पर्याप्त तकनीक है जिसका उपयोग तकनीकी सहयोग और मानव संसाधन प्रशिक्षण के लिए किया जा सकता है। हमें अतिरिक्त प्रशिक्षण व्यवस्था, विभिन्न क्षेत्रों में उद्यमिता विकास के लिए करनी चाहिए। अकबर, बाबर और चंद्रगुप्त वाली पढ़ाई और मैकाले का पथ प्रदर्शन आज के संदर्भ में बहुत सीमित अर्थों में उपयोगी है। इसलिए हमें प्रत्येक प्राकृतिक संसाधन के इर्द गिर्द कुछ क्षेत्र स्थानीय उद्यमिता के लिए संरक्षित रखने चाहिए जैसे तमाम छोटी नदियां, आधा मैगावाट से छोटे बिजलीघर बनाने के लिए संरक्षित कर देनी चाहिए, जिसमें केवल हिमाचली उद्यमी ही निवेश कर सकें। जल, जंगल, जमीन, पर्यटन, जल ऊर्जा आदि जो भी नीतियां इन दिनों चल रही हैं जिसके पीछे कहीं न कहीं निजीकरण और वैश्वीकरण के दवाब साफ झलकते हैं उन्हें उपरोक्त चिंतन की दिशा में मोड़ना होगा। ५० किलोवाट के बिजली घर के उदाहरण को ही लें। १०० स्थानों पर छोटे छोटे फाल बनाकर ५ मैगावाट बिजली पैदा हो जाएगी। ५ करोड़ प्रति मैगावाट की दर से ५० किलोवाट पर करीब २५ लाख रूपये खर्च आएंगे। और यह बिजलीघर प्रति घंटा ५० युनिट बिजली पैदा करेगा अर्थात २४ घंटे में १२०० युनिट, २.५० प्रति युनिट की दर से, जो सरकार का औसत खरीद दर है। यह बिजलीघर प्रतिदिन ३००० रूपये की, एक महीने में ९०,००० रूपए की बिजली पैदा कर सकता है। २५ लाख रूपए के निवेश से ९०,००० का मासिक कुल उत्पाद इस इकाई को किसी भी हाल में आर्थिक रूप से अव्यवहारिक नहीं ठहरा सकता। इसी तरह वन नीति के साथ हम डेयरी और गैर इमारती वन उत्पादों के आधार पर उद्यमिता विकास कर सकते हैं और पर्यटन नीति में ग्रामीण पर्यटन, साहसिक पर्यटन, धार्मिक पर्यटन, प्रकृति प्रेमी पर्यटन में उद्यमिता विकास कर सकते हैं, किंतु हमारी नीतियों में भविष्य दृष्टि झलकनी चाहिए।
साभारः दैनिक जागरण