जहाँ पर क्षेत्रीय सिनेमा जैसे तेलुगु, तमिल, मलयालम, बंगाली और पंजाबी भाषा की फिल्मों ने देश-विदेश मे अपनी एक अलग पहचान बनाई है, वहीं पर हिमाचल के वासी पहाड़ी भाषा में फिल्में देखने को तरसते हैं। कितने ही लोग जानते हैं कि पहाड़ी भाषा में फिल्में बनाने का प्रयास कई निर्देशक कर चुके हैं। ‘बुढा पहाड़ दा’, ‘उझेया रा खापरा’, ‘मशान’, ‘फुल्मु रान्झु’, ‘दो साडू’, ‘पुलिस चोकी मछरपुर’, ‘फौजिए दी फेमिली’, ‘मस्ती पहाड़िया दी’, ‘प्यार दा सन्देश’ ‘नट्ठ भज्ज’, और ‘मस्तु कंडक्टर’ ये कुछ नाम हिमाचली फिल्मों के हैं जो कब आईं और कब चली गयीं, पता ही नहीं चला। आप में से कितने लोगों ने ये नाम सुने हैं?
तकनीकी अभाव
इन फिल्मों को बनाने में आधुनिक तकनीक का उपयोग नहीं किया गया, जो मल्टीप्लेक्स संचालकों को लुभा सके। तकनीक से हमारा तात्पर्य अच्छे कैमेराज़ का ना होना, बेहतर ढंग से स्क्रिप्ट पर काम ना होना, संपादन पर ज्यादा ध्यान न देना, फिल्म के लिये अच्छी लोकेशंस का इस्तेमाल न करना है। अगर किसी भी हिमाचली फिल्म के लिए ऑडिशन किए जाते हैं, तो एक्टर्स भी इन फिल्मों मे इतनी गंभीरता से काम नहीं करते है।
स्पोंसर्ज नहीं लगाना चाहते पैसा
तकनीकी पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण, पहाड़ी सिनेमा पर निवेशकों का अविश्वास भी है । नट्ठ भज्ज के निर्देशक राजिंदर कौशल का कहना है कि पहाड़ी सिनेमा के बारे मे सुन कर निवेशक उस पर पैसा लगाने का जोखिम नहीं लेना चाहते। “अगर अपना पैसा लगाकर फिल्म बना भी ली जाती है तो उस फिल्म को थियेटर्स मे उतनी स्क्रीन्स नहीं मिल पाती है, जितनी एक फिल्म को मिलनी चाहिए और इसके कारण फिल्म निर्माताओं को नुकसान उठाना पड़ता है,” कौशल ने कहा।
उनका मानना है यदि थिएटर मालिक कुछ पहल करें तो कुछ बात बन सकती है। “थियेटर में हिमाचली फिल्मों को प्राइम टाइम में अगर वो एक शो भी दे दें तो लोगों तक पहाड़ी फिल्में पहुँच सकती हैं,” कौशल बोले।
सरकार की तरफ से भी नहीं कोई सहयोग
वहीं अगर हम दूसरे राज्यों की बात करें तो केरल, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, तमिल नाडु, पंजाब, गोवा, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सरकार वहां की क्षेत्रीय फिल्मों को प्रोत्साहन देने के लिए सब्सिडी उपलब्ध कराती है।
झारखण्ड सरकार अपनी क्षेत्रीय भाषा में बनने वाली फिल्मों को 50 प्रतिशत तक सब्सिडी प्रदान कराती है। हिमाचल में सरकार की तरफ से पहाड़ी सिनेमा को बढ़ावा देने के लिए न तो कोई अभी तक पहल हुई है और न ही नीतियों में कोई इसका प्रावधान है।
वर्ष 2017 में सांझ रिलीज़ हुई, जो हिमाचली सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक बड़े स्तर पर पहाड़ी फिल्म को रिलीज़ करने का प्रयास था। हमीरपुर स्थित साइलेंट हिल्स स्टूडियोज़ के बैनर तले बनी इस फिल्म का निर्देशन मंडी निवासी अजय सकलानी ने किया है।
सकलानी ने बताया की सांझ के निर्माण के दौरान कई हिमाचली सरकारी विभागों, व नेताओं ने सब्सिडी मुहैया कराने का आश्वासन ज़रूर दिया था, परन्तु वह बात आश्वासन तक ही सीमित रही।
सांझ से पहले हिमाचली सिनेमा को बड़े परदे पर पहचान नहीं मिली। सकलानी ने हिमवाणी को बताया कि पहाड़ी फिल्म बनाने में सबसे बड़ी चुनौती उसे थिएटर मे रिलीज़ करने की है।
“पहाड़ी फिल्में लो-बजट होती हैं। इन फिल्मों मे बड़े नामों का ना होना एक सच्चाई है; और मल्टीप्लेक्स संचालक इन फिल्मों को रिलीज़ करने का रिस्क लेने से कतराते हैं। इसीलिए पहाड़ी फिल्में कम बनाई जाती हैं,” सकलानी ने कहा।
दूर दराज़ है पहाड़ी सिनेमा का दर्शक
फिल्म बनाने के बाद उसके प्रमोशन और लोगों तक उसे पहुंचाना भी यहाँ एक चुनौती है। बहरहाल यह भी सच्चाई है कि पहाड़ी फिल्मों का दर्शक दूर-दराज़ के क्षेत्रों में बसा है जहाँ पर बड़े परदे का न होना भी पहाड़ी सिनेमा के बढ़ावे में बाधा बनता है। इंटरनेट के आ जाने से और यूट्यूब जैसी सेवाओं के प्रचलन से एक उम्मीद जगी है। जहाँ यूट्यूब पे दर्शक मौजूद है, वहीं इस पर निवेश-राशि का प्रतिफल पाना कठिन है।
नामचीन कलाकार हैं नदारद
सांझ, हिमाचली सिनेमा के इतिहास में एक प्रयास था जिसमें पहली बार बॉलीवुड के कुछ करैक्टर-एक्टरज़ जैसे आसिफ बासरा और तरनजीत कौर ने काम किया। परन्तु किसी बड़े नाम का अभाव फिर भी खलता रहा। हालांकि इस फिल्म के दो गानों — ‘पूछे अम्मा’ और ‘देवा मेरे’ — को हिमाचल के स्थानीय व बॉलीवुड के नामी गायक मोहित चौहान ने आवाज़ दी है ।
सकलानी ने कहा कि वो एक ऐसी फिल्म का निर्देशन करना चाहते थे जिससे पहाड़ी सिनेमा की शुरुआत बड़े परदे पर हो सके और आने वाले समय में बनने वाली पहाड़ी फिल्मों के लिये रास्ता बन सके। साँझ से पहले किसी भी ऐसी फिल्म का निर्देशन नहीं किया गया था जिसे थियेटर्स मे रिलीज़ किया जा सके। हिमाचली फिल्मों के लिए बजट के साथ साथ इतने दर्शक भी नही हैं।
जितने घाट उतनी बोलियाँ
इसका एक अन्य कारण हिमाचल में हर चार कोस पर वाणी का बदलना भी है। दूरदर्शन शिमला में सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत पुनीत सहगल के अनुसार, पहाड़ी बोली में फिल्म का उत्पादन नहीं किया गया है, क्योंकि, पहाड़ी यहाँ की राजकीय भाषा नहीं है।
“हिमाचल में 16 से 20 किलोमीटर की दूरी पर अपना एक अलग लहज़ा है। हर एक ज़िला की अपनी भाषा है जैसे कांगड़ी, मंडयाली, लाहौली, महसुवी, किन्नौरी, कुल्लुवी आदि। इसलिए हिमाचल में किसी एक बोली के लिए पर्याप्त दर्शक जुटा पाना कठिन है। इस वजह से भी हिमाचली सिनेमा को बढ़ावा नहीं मिल पाया है,” सहगल ने कहा।
आपको बता दें कि पूरे राज्य मे 30 से अधिक क्षेत्रीय बोलियाँ हैं, जबकि यहाँ की राजकीय भाषा हिंदी और अंग्रेजी है। सहगल ने यूँ तो पिछले चार वर्षों में ‘एक और मौत’ और ‘स्कूल फीस’ जैसी टेली-फिल्मों का निर्देशन भी किया है, परन्तु ये फिल्में पहाड़ी में न हो कर, हिंदी में हैं।
क्या है प्रतिभा की कमी?
ऐसा भी नहीं है कि हिमाचल मे किसी प्रतिभा की कमी है। इस राज्य से भी बॉलीवुड और टीवी के क्षेत्र में बहुत से मशहूर कलाकार काम कर रहे हैं, जिनमें कुछ प्रमुख नाम हैं — अनुपम खेर, प्रीति ज़िंटा, कंगना रनौत, रुबीना दिलेक हैं। इन सभी ने अपने अभिनय के दम पर अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
हिमाचल के लोग भी चाहते हैं कि हिमाचली, यानी पहाड़ी सिनेमा में बड़े स्तर पर काम हो। लोगों से बातचीत से पता चला कि वे हिमाचल की संस्कृति, जीवनशैली, पहाड़ों पर लोगों को होने वाली समस्यायें, देशभक्ति — यहाँ के वीर जवानों की जीवनी (जैसे सौरभ कालिया, विक्रम बत्रा ) — पर हिमाचली भाषा में फिल्में देखना चाहते हैं।
उम्मीद अभी है बाकी
हिमाचल के एक क्षेत्र के गाने, दूसरे क्षेत्र में अपनाये, सराहे व गाये जा सकते हैं, तो हिमाचल की अलग अलग बोलियों में बनने वाली फिल्मों को भी यहाँ के दर्शक अवश्य ही प्यार देंगे।
भविष्य में आने वाली हिमाचली फिल्मों में कुल्लू के राज ओबेरॉय द्वारा निर्देशित ‘एकता की डोर’ कतार में ऊपर है। इस फिल्म की शूटिंग अप्रैल 2018 से शुरू होगी और ये 3 भाषाओं — हिंदी, पहाड़ी व कोई दक्षिण भारतीय भाषा — में रिलीज़ की जाएगी। दूसरी तरफ सकलानी भी अपनी अगली फिल्म की तैयारी में जुट चुके हैं और उम्मीद है कि वे हिमाचल के एक नामी बॉलीवुड कलाकार को बतौर हीरो लॉन्च करेंगे।