शांता तेरे राज में, बच्चे जले आग में…

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By: अजय सकलानी

बस 6 किलोमीटर दूर था मेरा स्कूल मेरे घर से, पर फिर भी घर वालों को चिंता होती थी कि बच्चे स्कूल कैसे पहुंचेंगे? 6 साल का हो चुका था तब तक और पहली कक्षा में भी पड़ता था| पिछले साल भी मेरी माँ दाखिले के लिए बात करने गयी थी मगर अध्यापकों नें मना कर दिया था, खैर वो भी क्या करते नियम ही यही था कि 6 साल से पहले दाखिला ही नहीं दिया जा सकता था और सरकारी स्कूलों में तो आज भी वही नियम है| ना जाने क्यों दिल्ली जैसे शहर में अब 2 साल के बच्चों को भी दाखिला मिल जाता है, और वो भी पहले साक्षात्कार (Interview) होता है उनका| कुछ बच्चे तो 1 साल कि उम्र में ही अब टूशन पढ़ने लगे हैं, भाई साक्षात्कार में पास भी तो होना है| खैर छोड़िये कहाँ अपने सुन्दर और स्वच्छ गाँव से आपको दिल्ली की गन्दगी में ले आया|

हाँ तो बात हो रही थी मेरे स्कूल जाने पर मेरी माँ को मेरी चिंता होने की| बस ये बात थी कि स्कूल तक कोई सड़क नहीं थी| रास्ता कुछ इस तरह का था कि घर से पहले निचे उतरो 3 किलोमीटर तक, तकरीवन 70 से 80 डिग्री कोण (vertical) वाला रास्ता था वह| अगर पैर फिसल जाये तो 1 किलोमीटर का रास्ता तो समझो अपने आप ही गिरते गिरते तय हो सकता था| फिर उसके बाद एक छोटा सा खड था (हमारे गाँव में उसे नाला कहते हैं) जिसे पार करना होता था| गर्मियों में तो ठीक था, उसमें पानी कम होता था पर सुनने में आया था कि बरसात में काफी लोग बह चुके थे उसमें| चलो ये भी समझो पार हो गया| फिर 2 किलोमीटर का रास्ता खेतों के किनारे से होता हुआ एकदम सीधा था और समतल (horizontal)| दौड़ कर जाते थे हम वहाँ से| अब एक और नाला, माफ़ कीजियेगा, एक और खड| यहाँ अभी एक पुल बनाने का काम चल रहा था पर अगर उसका इंतज़ार करते तो शायद में आज यह नहीं लिख रहा होता, हाँ वहीँ खड पर मछलियाँ ज़रूर पकड़ रहा होता| अजी अब यह भी समझो पार हो गया तो फिर थोडी ऊपर कि ओर देखने पर स्कूल नज़र आता था| हाँ अब सांस में सांस आती थी, और अच्छे से सांस भी लेनी पड़ती थी क्योंकि अब ऊपर कि ओर चढ़ना पड़ता था| हाँ यहाँ मैं किसी भी भ्रम में नहीं हूँ क्योंकि मुझे ठीक से पता है कि यहाँ रास्ता 80 डिग्री कोण (vertical) से भी ज्यादा का हो सकता है पर कम बिलकुल भी नहीं| क्योंकि कुछ सालों के बाद मैंने और मेरे स्कूल के सभी दोस्तों नें मिलकर इसी रास्ते से, अपने स्कूल कि ईमारत बनाने के लिए, खड से स्कूल तक पत्थर ढोए थे| खैर वो बाद कि बातें है, अभी फिलहाल उन्हें भूल जाना चाहिए और ख़ुशी कि बात यह है कि आखिरकार मैं अपने स्कूल पहुँच गया| एक छः साल का बच्चा 6 किलोमीटर का आसान सा रास्ता तय करके अपने स्कूल कुछ इस तरह से पहुँच पाता था|

भला हो उस सांसद (MLA) ठाकुर महेंद्र सिंह का| जो तब से लेकर आज तक वहां का MLA है| उसने हमारे गाँव में ही स्कूल मंज़ूर करवा दिया और अब हमारा रास्ता 6 किलोमीटर से घट कर १, नहीं शायद आधा, नहीं आधा भी नहीं, शायद 100 मीटर का रह गया होगा| खैर बताना मुश्किल है क्योंकि अगले 5 साल तक तो हमारे स्कूल का ठिकाना ही नहीं था| आज किसी के घर और कल फिर किसी और के घर, और परसों शायद तब तक किसी का खेत खाली हो जाए तो वहीँ पढाई कर लेंगे, जैसा हाल था| अब आप सोच रहे होंगे कि भला शांता के राज और बच्चों की आग का क्या रिश्ता है? हाँ थोडी सी देर में मैं यहाँ पहुंचा पर अब लगभग पहुँच ही चुका हूँ| वो दिन मुझे अच्छे से याद है जब हमें 4 दिन पहले ही पता चल गया था कि सोमवार को यानी 4 दिन बाद हम कहाँ पर इकट्ठा होंगे| हाँ पर ये नहीं पता था कि क्यों| और हमें समय से पहले ही स्कूल पहुंचना था उस दिन| हमारा स्कूल का समय होता था 10 बजे का और उस दिन हमें 8 बजे ही स्कूल पहुंचना था| चलो जल्दी चलो…..

हम सुबह 8 बजे सड़क पर पहुँच चुके थे| पाता चला था कि आज हमारा स्कूल यहीं पर होगा और हम बिना बक्सा (school bag) लिए आये थे आज| शायद कोई अलग ही पढाई होनी थी| तकरीवन 15-20 बच्चे रहे होंगे उस समय मेरे स्कूल में| कुछ सुस्त होकर बैठे हुए थे तो कुछ पत्थरों के साथ खेल रहे थे| हमारे अध्यापक जी बीड़ी पी पी कर समय काट रहे थे| हमें अचानक कहीं से कोई आवाज़ गूंज़ती हुई सुनाई दी| अब पहाडों में तो आवाज़ ऐसे ही बहुत गूंज़ती है| ध्यान से देखा तो सामने वाले मोड़ पर किसी दूसरे स्कूल के बच्चे नारे लगाते हुए आ रहे थे| तकरीवन 100 से ज्यादा बच्चे थे|

” शांता तेरे राज में बच्चे जले आग में| ”
” शांता कुमार मुर्दाबाद ”
” शांता तेरे राज में बच्चे जले आग में| ”

और वो हमारे पास पहुँच गए| हमारे अध्यापक नें हमें भी उनके साथ मिलकर ज़ोर ज़ोर से नारे लगाने को कहा| और ये कारवां हमारे पुराने स्कूल कि ओर बढ़ चला| अभी तक तो हम कुछ भी समझ नहीं पाए थे पर इतना ज़रूर था कि हमारे पड़ोस के गाँव में एक शांता रहती थी तो हम शायद उसका नाम ज़ोर ज़ोर से पुकार रहे थे| पूछने पर एक बड़ी क्लास के लड़के नें बताया “हमारी फीस बढ़ गयी है तो उसकी वजह से हम सब आज हड़ताल कर रहे हैं|”

हमें क्या था, बस मस्ती का एक नया तरीका मिल गया था सो हम चिल्लाते हुए चल दिए| हमारी फीस 20 पैसे से बढ़कर 40 पैसे हो गयी थी| पर ये मुसीबत तो केवल घरवालों के लिए थी, हम तो बस स्कूल जाना और वापिस आना यहीं तक की बात समझते थे| आसमानी रंग का कूर्ता-पज़ामा पहने हुए हम सब दूर दूर के गाँव के लोगों के लिए एक नज़ारे से कम नहीं लग रहे थे| उस दिन हम दूर दूर तक के 5-6 स्कूलों में गए और खूब नारे लगाए|

सुबह 8 बजे घर से निकले थे और शाम को 8 बजे वापिस घर पहुंचे| दिन भर कुछ खाने को भी नसीब नहीं हुआ, बस रास्ते में जहाँ भी मौका मिला पानी पीते रहे| उस दिन हमारे घर में भी किसी को चिंता नहीं थी कि बच्चे भूखे होंगे| उन्हें भी बस बढ़ी हुई फीस ही नज़र आई थी| खैर अच्छी बात यह थी कि कुछ दिन बाद ही हमारी फीस फिर कम हो गयी थी और उस ख़ुशी में हमें वो पांच पैसे वाली एक एक टोफ्फी भी दी थी हमारे अध्यापक जी नें| घर वाले भी सभी खुश थे कि बच्चों की मेहनत रंग लायी| और हाँ ये भी मैं समझ गया था कि शांता पड़ोसी गाँव वाली लड़की नहीं थी, बल्कि शांता ‘कुमार’ कोई नेता थे, जो हमारे शिक्षा मंत्री थे| उन्होंने ही हमारी फीस बढ़ाई थी| ऐसे ही होना चाहिए था उनके साथ| हाँ बस नारा थोड़ा गलत हो गया था| हम सब बच्चे आग में नहीं धुप में भूखे जले थे…..

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8 COMMENTS

  1. must say that….you have picked up the scattered pearls and have beaded them vry nicely into a string……..

  2. Super.. बहुत बढ़िया.

    अजय जी, आपने तो गाँव के बचपन की यादें ताजा करवा दी. गाँव में तो स्कूल जाना और आना ही अपने आप में एक पूरा कार्य रहा है. वैसे भी स्कूल में पढाई लिखाई कम ही हुआ करती थी. ज्यादा समय तो वालीबाल खेलने में ही निकलता था. नारों से याद आया, सन १९९१ के सेब आँदोलन में भी शांता कुमार के खिलाफ जम कर नारेबाजी हुई थी और पुलिस के खूब डंडे खाए थे. शांता जी मुख्यमंत्री कम और जनरल ज्यादा लगते थे. उनके शासनकाल में जितनी नारेबाजी हुई है, शायद किसी मुख्यमंत्री के समय में नहीं हुई. आपको शायद याद हो विद्युत कर्मियों ने भी ४-५ दिनों के लिए पूरे प्रदेश में बिजली बंद कर के अपना रोष प्रकट किया था. वह तो उनकी सरकार बर्खास्त हो गयी नहीं तो पूरे पॉँच साल नारेबाजी चलती रहती.

    बीते दिनों की याद दिलाने के लिए आभार.

  3. Kya likha hai yaar. Maza aa gaya. Mai Himvani par kahaniyan nahi padhta hoon par yah padh kar laga ki kyon nahi padhta hoon. By the way, yeh protests kaun organise karta tha school ke bachon ke?

  4. Wah, kya likha hai. Mai Himvani par kahaniyan nahi padhta par yeh padh kar laga ki kyon nahi padhta. By the way yeh school ke bachon ke protest kaun organise karta tha woh bhe CM ke khilaf?

  5. धन्यवाद नितिन जी, बस यूं समझिये मेरे बचपन की ये इकलोती नारेबाजी थी शायद तभी इतनी याद रही| बाकि अभी होने को है, सफ़र तो अभी शुरू हुआ है….

    नेहा जी, आपकी अच्छी टिपण्णी के लिए धन्यावाद, बस इसी तरह टिपण्णी करते रहिएगा| और अमित जी आपका भी धन्यवाद बस यूं ही प्यार बनाए रखियेगा|

    राहुल जी मैं कोई बहुत बड़ा लिखाड़ नहीं हूँ और ना ही कहानियाँ लिखता हूँ, बस कभी कभी ज़िन्दगी के कुछ पल यूं ही आप जैसे लोगों से बांटता हूँ| अच्छा लगा की आपने कि इसे पढ़ा और अपनी टिपण्णी दी|

  6. Shanta ji is a vastly misunderstood leader.In my view his policies had the stamp of a great thinker far ahead of the times.Many of his policies and decisions have adoppted by the central govt.and certain state govts.

    • Shekhar Ji, I agree with you on your views about Shanta Kumar. A radical change in the education system in himachal was required then and if that would have happened, there would have been better education opportunities in Himachal today. But the condition of education in himachal is still not up to mark. We can't go according to the data provided by the government bodies which is all rubbish which promotes Himachal among as most educated states.

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