हिमाचल प्रदेश में वन सम्पदा के रूप मे औषधीय पौध

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द्वाराः डी डी शर्मा

हिमाचल प्रदेश में लघु वन उत्पाद के रूप में औषधीय तथा सुगन्धित पौधों का एक बड़ा हिस्सा है । ये प्रदेश के उंचाई वाले क्षेत्रों में गरीब ग्रामीण लोगों की आजीविका और स्वास्थय सुरक्षा में अहम भूमिका निभातें हैं । उन्नीसवी शताब्दी और इससे पहले तो इन क्षेत्रों में यातायात की सुविधा के अभाव तथा अच्छी किस्म के बीज के अभाव में लोग इसका इस्तेमाल न केवल दवाइयों के रूप में करते थे बल्कि सब्जियों के रूप में भी इसका प्रयोग किया जाता है । प्रदेश के कई भागों में तो भोजन के अभाव में लोग खनोर का आटा, शेगल का दलिया तथा खरसु के फलों को भोजन के लिए प्रयोग करते थे । इसके अलावा और भी बहुत सारे ऐसे उत्पाद है जिनका प्रयोग आमतौर पर किया जाता है जैसे मशरूम, खाद्य जड़ें, लिंगड़ी, सुनेहरू (मशरूम प्रजाति जो कि बरसात में पैदा होता है और इसे सूखा कर सर्दियों में खाया जाता है) ।

हिमाचल प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्रफल ५५,६७३ वर्ग किलोमीटर है जो कि देश का १.७ प्रतिशत ही है लेकिन इसके बावजूद यहां पर औषधीय पौधों की पैदावार अपेक्षाकृत काफी ज्यादा है । राज्य में इस समय औषधीय पौधों की तकरीबन ३५०० प्रजातियां पायी जाती है जिसमें से लगभग ८०० किस्में हिमाचल तथा देश के दूसरे राज्य में दवाइयां बनाने के काम लाया जाता है । इन पौधों के बारे में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार ७० प्रतिशत जड़ी बुटियों, १५ झाड़ियों, १० पौधों तथा ५ प्रतिषत बेलों के रूप में पायी जाती है । प्रदेश से लगभग २५०० टन औषधीय पौधों का वार्च्चिक वैध निर्यात किया जाता है ।

सरकार को ४० लाख की आय इन दवाइयों के निर्यात परमिट जारी करने से होता है । इस समय खेती तथा प्राकृतिक रूप से जंगलों में पैदा हुई ६५ प्रजातियों का निर्यात किया जाता है । महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि १०० प्रजातियों में से २४ किस्में केवल हमारे राज्य में पायी जाती है ।

हमारे राज्य में औषधीय पौधों का निर्यात एक सही तरीके से न होने के कारण इससे आम किसानों को लाभ नहीं पहुंच पाता । अधिकांश क्षेत्रों में यह गुप्त तरीके अवैध तथा कच्चे माल की तरह ही निर्यात किया जाता है । गुणवता पर काबू और प्रमाणिकता मानकों के अभाव में प्रदेश सरकार तथा वन विभाग को आय का काफी नुकसान हो रहा है । लेकिन दूसरी ओर कच्चे माल की मांग को देखते हुए ग्रामीण रोजगार की सम्भावनाओं की अपार सम्भावनाऐं व्यक्त की जा रही है ।

स्वतंत्रता से शाही रियासतों में पूर्व १८६० में वन बन्दोबस्त की प्रक्रिया आरम्भ हुई जिसमें इस बात औपचारिक रूप से माना गया कि ग्रामीण लोंगों की वन उत्पाद पर  निर्भरता काफी ज्यादा है । यही कारण था कि अधिकांश बन्दोबस्त में पर घास काटने, चराई, औषधीय पौधों, फल, फूल, छिलके, बालन आदि के दोहन अधिकार दिये गये । यह अधिकार उन लोगों को है जो कि कृषि भूमि से सम्बन्ध रखते हैं । कुछ रियास्तों में यह अधिकार बर्तनदारी के नाम से जाना जाता था और हकदारों को बर्तदार कहा जाता है । ये अधिकार उन लोगों को प्राप्त थे जो वनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेते थे । इस प्रकार के अधिकारों से प्रतिवर्च्च हकदारों को एक हजार करोड़ रूपये का लाभ दिया जाता है । वन विभाग द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार जो जड़ी बुटियां कम उंचाई पर होती है उसकी पैदावार ज्यादा और मूल्य कम होता है जबकि अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों में पैदा होने वाली जड़ी बुटियों की पैदावार कम होती है लेकिन उनकी गुणवता और मूल्य अपेक्षाकृत ज्यादा होता है । प्रदेश के कुछ स्थानों में औषधीय पौधों का आबंटन भी उंचाई के आधार पर किया जाता है जैस कुल्लू में निचले क्षेत्रों में भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया जाता है जबकि मध्यम उंचाई वाले क्षेत्रों में शामलात भूमि का प्रयोग बालन चारा इमारती लकड़ी और टी डी अधिकारों के लिए और अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों में चारागाह और जड़ी बुटियां और घुमन्तु चरवाहों के लिए रखा जाता है ।

यह ध्यान योग्य बात है कि औषधीय पौधों के मामले में इनका संरक्षण, प्रबन्धन और स्थायी तरीके से दोहन करना काफी कठिन कार्य है । औषधीय पौधों के दोहन हेतु दैनिक भोग के सामाग्री वाली सोच को छोड़कर अनुकूल तकनीक की आवश्यकता की जरूरत होगी क्योंकि इस बारे में जो तकनीक अपनायी जा रही है वह नई है तथा कृषि योग्य भूमि जमीन का आकार भी दिन प्रति दिन घट रहा है । यद्यपि आयुर्वेद, कृषि और बागवानी विभाग द्वारा इस दिशा में पहले से ही प्रयास किये जा रहे हैं ।  तथापि यह अत्यंत आवश्यक है कि वन विभाग प्रदेश के वनक्षेत्र में औषधीय पौधों के संरक्षण एवं प्रबन्धन में दूसरी एजेन्सियों की नकल न करते हुए अपनी भूमिका परिभाषित करें । इन तथ्य के मद्देनजर हिमाचल प्रदेश वानिकी क्षेत्र औषधीय पौधों की नीति २००६ जोकि प्रदेश मन्त्रिमण्डल द्वारा मई २००६ में अनुमोदित की गई का उद्देश्य वनों में उगने वाले औषधीय पौधों को बढ़ावा देने के लिए लम्बी अवधि तक आवश्यकता को पूरा करने के लिए ठोस कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया । राष्ट्रीय वन नीति १९८८ (धारा ३ के तहत अनुच्छेद ३.५) में का मुख्य उद्देश्य वन प्रबन्धन के लिए जनजातीय तथा ग्रामीण लोगों की लघु वन उत्पाद की आवश्यकता को पूरा करना था । नीति मे औषधीय पौधों और वन संरक्षण से सम्बन्धित क्षेत्र को लिया गया है । वर्ष २००३ में प्रदेश सरकार ने ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र में निकाली गई ३७ तरह की जड़ी बुटियों के निर्यात के लिए परिवहन पास के परमिट जारी तथा फीस एकत्रित करने की अनुमति प्रदान की है । इससे पंचायत के क्षेत्र में स्थानीय हकदार तथा गरीब ग्रामीण लोग प्रशासनिक औपचारिकताओं से बचकर जड़ीबूटियों को एकत्रित कर परिवहन हेतु संबंधित परमिट से जड़ी बुटियों को बहार भेज सकते है और अपनी आजीविका का निर्वहन कर सकते हैं । इससे पंचायतों का न केवल आय में वृद्धि होती है अपितु लोगों में स्थायी वन प्रबन्धन एवं संरक्षण के प्रति लोगों की सोच बदली जा सकती है । इससे वन विभाग मे समुचित वन दोहन द्वारा पेड तक केन्द्रित सोच को बहु उपयोगी वनस्पति की ओर मोड़ने से सामुदायिक संगठनों और विभाग में आपसी संबंध से सहभागिता वन प्रबन्धन से सतत वन प्रबन्धन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं ।

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