पर्यावरण की कीमत पर न हो सड़क निर्माण

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द्वाराः कुलभूषण उपमन्यु

हिमालय क्षेत्र में सड़क निर्माण की मांग बढ़ती जा रही है। विकास की लौ को दूर दराज तक पहुचाने की दृष्टि से ही यह मांग जोर पकड़ रही है। विकास के लिए परिवहन एवं संचार के माध्यमों का महत्व सर्वविदित है। पेचीदा अर्थव्यवस्था के दौर में बाह्यविश्व से कटकर आधुनिक विकास की बात सोचना असंभव है।

दूसरी ओर देंखें तो कोई भी विकास क्षेत्र विशेष में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और टिकाऊ उपयोग पर निर्भर करता है। एक ओर परिवहन और संचार साधनों का प्रसार जरूरी है तो दूसरी ओर  प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और टिकाऊ उपयोग। पर्वतीय क्षेत्रों की ढलानदार भूमि सड़क निर्माण के लिए  कई तरह की चुनौतियां पेश करती है जिनमें सबसे मुख्य चुनौती है पर्वतीय क्षेत्रों में जल, जंगल, जमीन जैसे मूल प्राकृतिक संसाधनों को होने वाली क्षति। जिस तरह से अंधाधुंध सड़क निर्माण किया जा रहा है वह आर्थिक रूप से, जानमाल की सुरक्षा की दृष्टि से और पर्यावरण संरक्षण की जरूरतों की दृष्टि से अलाभकारी और अवैज्ञानिक है।

सारी सड़क कटाई द्वारा बनाई जाती है और मलबा नीचे ढलान पर फैंक दिया जाता है, जिससे सड़क के ऊपर कटाई से भूस्खलन शुरू हो जाते हैं और नीचे मलबा फैंकने से, नीचे ढलानों की वनस्पति और घास भी नष्ट हो जाती है जिसकी कीमत केवल रूपयों में नहीं आंकी जा सकती। इसके कारण मिट्टी पानी का जो क्षरण होता है उसकी भरपाई लगभग असंभव होती है। हिमालय क्षेत्र में इस तबाही की कीमत गंगा और सिंध के मैदानों में बसे करोड़ों भारतीयों को भी बाढ़ और सूखे के रूप में चुकानी पड़ती है। सिंचाई के लिए इन क्षेत्रों में नदी जल और भूमिगत जल दोनों ही घट रहे हैं। इस लापरवाही का प्रतिकूल असर हिमालय क्षेत्र और मैदानी क्षेत्रों के निवासियों की स्थायी आजीविका पर पड़ता है। भविष्य के लिए आजीविका विस्तार की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं। यह अपने आप में बहुत ही घातक प्रभाव है किंतु प्रकृति के प्रति संवेदनशील निर्माण तकनीकों से काफी हद तक  इन दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है।

हाल ही में मुझे चंबा जिले के मंद्रिहार और सुंगल क्षेत्रों में जाने का अवसर मिला, मंद्रिहार में सड़क निर्माण से गांव को ही भूस्खलन का खतरा पैदा हो गया है। कुछ घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं ६-७ किलोमीटर लंबा सड़क में सदियों से लोगों की प्यास बुझाने वाले ९ चश्मे दबकर नष्ट हो गए हैं। इनमें से दो तो बहुत बढ़िया पक्के बनाए गए थे। जंगल और चरागाह का विनाश चिंताजनक स्तर  तक हो गया है। इसी तरह सुंगल में मौसम की पहली जोरदार बारिश में बादल फटने की घटना का समाचार आया। खेती, घर, वाहन आदि मलबे में दब गए। किंतु यह घटना बादल फटने की नहीं, गांव के ऊपर से बन रही सड़क द्वारा फेंके गए मलबे के बहने से आरंभ हुए भूस्खलन से हुई है।

ये तो मात्र दो उदाहरण हैं। हिमालय में हर सड़क निर्माण के साथ ऐसी हजारों त्रासदियां घटित हो रही हैं। किंतु विकास की जल्दी में हम विनाश के प्रति आंखें बंद किए रहते हैं। हमारी अपनी गलतियों से आ रहे भयानक भूस्खलनों को, बादल फटने जैसी प्राकृतिक  आपदाओं के नाम से छुपाने के प्रयास भी होते हैं।
सड़क निर्माण से हिमालय से अरबों टन मलबा ढलानों को बर्बाद करते हुए नदी-नालों के स्वरूप को भी बिगाड़ रहा है। नदियों पर बने बांधों को गाद से भर रहा है। इस व्यापक विनाश को देखते हुए हिमालय में सड़क निर्माण तकनीक में तत्काल सुधार  लाए जाने की जरूरत है। दो बातों पर सड़क निर्माण के समय ध्यान देना जरूरी है। एक ढलानों पर मलबा फेंकने की पूर्ण मनाही, दूसरे सड़क निर्माण से जल निकासी के प्राकृतिक स्वरूप को गड़बड़ाने से बचाना। सड़क के अंदर की ओर की नालियों में मीलों तक पानी इकट्ठा करके जिस तरह नालों में पुलिया बना कर  छोड़ा जाता है  वहां अक्सर नए भूस्खलन शुरू हो जाते हैं। ऐसे निकासों की संख्या  ज्यादा होनी चाहिए। ताकि पानी थोड़ा-थोड़ा बिखर कर कई जगहों पर छोड़ा जाए। जहां पानी छोड़ा जाए वह जगह यदि पक्की नहीं है तो ढलान के नीचे तक निकास नालों को पक्का बनाया जाए, इससे प्राकृतिक जल निकास में गड़बड़ की वजह से  होने वाला भू-कटाव काफी हद तक रूक सकता है। सड़क निर्माण की तकनीक में सुधार के लिए ÷कट एंड फिल’ पद्धति से सड़क निर्माण  होना चाहिए। मान लीजिए राष्ट्रीय राजमार्ग के स्तर की सड़क बनानी है जिसकी चौड़ाई १० मीटर होगी हमें पांच मीटर पहाड़ काटकर सड़क बनानी चाहिए और ५ मीटर की दूरी पर डंगा (रिटेनिंग वॉल) लगाना चाहिए। ५ मीटर कटाई से निकलने वाला मलबा नीचे लगे डंगे में भराई करके १० मीटर सड़क बन जाएगी और कोई मलबा नीचे नहीं फेंकना पड़ेगा।

डंगे के लिए, बे्रस्टवाल के लिए और पक्का करने तक लगने वाला पत्थर भी वहीं सड़क पर जमा कर लेना चाहिए, जिससे खर्च बचेगा। आमतोर पर सारा पत्थर  नीचे ढलानों में फैंक दिया जाता है और सड़क पक्की करने के समय नीचे से वही पत्थर लाने या कहीं दूसरी जगह से पत्थर लाने के लिए नए खनन  स्थल बनाए जाते हैं, जिससे नए भूस्खलन आरंभ हो जाते हैं।  और ढलाने के लिए भारी खर्च होता है। इससे बचा जा सकता है। जहां ढलान तेज हो और कट एंड फिल पद्धति से सड़क बनाना संभव न हो वहां साइड कटिंग से सड़क बनानी चाहिए और मलबा उठाकर पहले से चिन्हित  स्थलों पर डालना चाहिए जिससे कई जगह तो उपजाऊ जमीनें बनाई जा सकती हैं।  ऐसी नौबत बहुत कम स्थलों पर ही आएगी जहां जहां  ढलान बहुत तेज होगी।  शिवालिक और बाह्य हिमालय में तो औसत ढलान ४५ डिग्री से ज्यादा नहीं है।

४५ डिग्री से ५० डिग्री तक तो  आसानी से कट एंड फिल पद्धति  से सड़क निर्माण हो सकता है। हां, थोड़ा सा खर्च ज्यादा होगा पर इतना ज्यादा नहीं कि वहन ही नहीं किया जा सके।  उदाहरण के लिए ४५ अंश ढलान पर  आधी आधी कटाई -भराई से १० मीटर चौड़ी सड़क बनानी हो तो प्रति १०० मीटर (मैटलिंग के बिना) खर्च होगा लगभग साढे पांच लाख रूपये। अगर सारी १० मीटर चौडा+ई कटाई से बनानी हो तो खर्च होगा करीब साढे चार लाख रूपये। इस तरह २० से २५ प्रतिशत ही खर्च में बढ़ौतरी होगी।  यदि अन्य बचतों  और दीर्घकालीन  पर्यावरण  और आजीविका के लाभों को गिन लिया जाए तो दीर्घ काल में सुधरी तकनीक से सड़क  निर्माण सस्ता पड़ेगा। पर्वत विशिष्ट  समझ और संवेदनशीलना से हमारे इंजीनियर वर्ग को भी यदि प्रेरित किया जा सके तो वे इस विकल्प का विकास करने में निःसंदेह सक्षम हैं।

साभारः दैनिक जागरण .

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  1. One can't but agree with you. Development loses its meaning if it is not sustainable and harms the enviornment. Mountains are fragile and utmost care needs to be taken while messing with them in name of development.

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