रेबीज़ का निवारण कैसे हुआ ₹35K से केवल ₹350; 18 वर्ष के परिश्रम की कहानी, डॉ ओमेश भारती की ज़ुबानी

पिछले माह डॉ ओमेश भारती के रेबीज़ के इलाज की प्रक्रिया को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने मान्यता दी

0
डॉ ओमेश भारती

कुछ वर्ष पूर्व हिमाचल में हर माह 1-2 लोग रेबीज़ के शिकार हो जाया करते थे। साल 2017 में, पूरे वर्ष भर में केवल दो मौतें सामने आईं, वो भी रेबीज़ के रोकथाम के उपाय ना करवाने की वजह से। ये मुमकिन कर दिखाया शिमला निवासी डॉक्टर ओमेश भारती ने, जिनके 18-वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद रेबीज़ का निवारण अधिक सार्थक व खर्चा ₹35,000 से गिर कर केवल ₹350 रह गया है।

ये आंकड़े बहुत मायने रखते हैं। पूरे हिमाचल से साल भर में, बंदरों और कुत्तों के काटने के 4,000 से 5,000 तक मामले  सामने आते हैं।

पिछले माह, डॉ भारती, जो कि शिमला में दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल के इंट्रा डरमल एंटी रेबीज़ क्लिनिक एंड रिसर्च सेंटर में कार्यरत हैं, के रेबीज़ के रोकथाम की प्रक्रिया को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी मान्यता दे दी है।

प्रायः हम किसी उपलब्धि का श्रेय किसी एक व्यक्ति को ही देते हैं, और उनके परिवार व उनके सहकर्मी के त्याग को भूल जाते हैं। डॉ भारती ने सन 2000 से रेबीज़ के निवारण पर काम शुरू कर दिया था। हिमवाणी से हुए वार्तालाप, में भारती ने कहा, “वर्ष 2008 के बाद इस अनुसंधान में तेज़ी आ गयी और अधिक मेहनत करनी पड़ी। तब तक अनुसंधान को लेकर पूरी व्यवस्था की गई।”

उससे पहले लिटरेचर रिव्यु, पढ़ाई, लोगों से मिलना चलता रहा। उनके इस व्यस्तता के कारण वे अपने परिवार को अधिक समय नहीं दे पाते थे ।

“पिछले तीन-चार वर्षों में रात को नींद भी नहीं आती थी। परिवार को कम वक्त दे पाता था, क्योंकि, घर पर भी रिसर्च से जुड़ी पढ़ाई करनी होती थी । लेकिन अब रिसर्च पूरी होने के बाद और WHO से उसे मान्यता मिलने से सब खुश हैं।” भारती ने मुस्कुराते हुए बताया।

भारती बताते हैं कि उनकी पत्नी एक पत्रकार हैं, और उनका अपना समय भी अनियमित रहता है, इसलिए वो उनकी मजबूरी को अधिक समझ पाती हैं। परन्तु चुनौतियाँ केवल पारिवारिक ही ना थीं। अनुसंधान में भी कई रोड़े सामने आए।

चुनौतियाँ केवल पारिवारिक ही नहीं थी

डॉ ओमेश भारती

डॉ ओमेश भारती

किसी भी अनुसंधान को करने के लिए नैतिक अनुमति लेनी पड़ती है, तो वो कोई मैडिकल कॉलेज देने के लिए तैयार नहीं था। न ही कोई बड़ा संस्थान शुरू में उनके साथ आने को तैयार था। यह नैतिक व तकनीकी मंज़ूरी उन्हें बेंगलुरु के निमहांस संस्थान ने दी।

इसके साथ-साथ अनुसंधान करने के लिए प्रयोगशाला भी एक चुनौती थी। अनुसंधान के बाद किसी अच्छी चिकित्सकीय पत्रिका में इसका प्रकाशन होना भी कठिन होता है । प्रकाशन होने के बाद WHO उसे स्वीकार कर ले यह बहुत बड़ी बात है । भारती बताते हैं, “अनुसंधान से जुड़े हुए हज़ारों प्रकाशन हर रोज़ WHO के पास आते हैं । ये जरूरी नहीं होता कि अगर आप किसी चीज़ पर अनुसंधान कर रहें हैं तो WHO उसे स्वीकार कर मान्यता दे दे। यह बहुत दुर्लभ है जो हमारे साथ हुआ। मैं रिपन (दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल का पुराना नाम) के डॉक्टरों, स्वास्थ्य विभाग के सभी कर्मियों, और WHO, जिन्होंने हमारी टीम पर विश्वास किया, उन सभी का आभार व्यक्त करना चाहूँगा। एक छोटे से अस्पताल से हम पूरे विश्व के मानचित्र पर रेबीज़ का परिदृश्य बदलने में कामयाब हो गये।”

राज्य में हुआ निवारण, अब पूरे विश्व में होगा

डॉ भारती के अनुसार उन्होंने शिमला में रहते हुए अपनी रेबीज़ के निवारण की प्रक्रिया को 269 मरीज़ों पर प्रयोग किया, जिसके सभी परिणाम सकारात्मक आए । उनके इस निवारण की प्रक्रिया को WHO द्वारा मान्यता प्राप्त होने के बाद अब पूरे विश्व भर में अपनाया जायेगा।

पूरे विश्व में प्रत्येक वर्ष रेबीज़ से 59,000 लोगों की मौत हो जाती है। वहीं भारत में 20,000 लोग रेबीज़ से अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं । डॉ भारती के अनुसार, किसी जानवर के काटने पर पीड़ित व्यक्ति का समय रहते इलाज न हो और अगर वह रेबीज़ का शिकार हो जाए तो उसकी दर्दनाक मृत्यु हो जाती है ।

“इसमें न व्यक्ति जीता है और न ही मरता है । इससे पीड़ित मरीज़ों की मौत उन्हें सौ बार फांसी देने के बराबर है ।”

उनकी मौत का कारण अक्सर समय रहते जानवर के काटने पर इलाज ना कराना होता है। पागल जानवर के काटने का इलाज, इससे पहले बहुत महँगा पड़ता था, और हर इंसान इसका इलाज कराने की क्षमता नहीं रखता है। आपको बता दें कि किसी पागल जानवर के काटने पर रेबीज़ का सिर्फ रोकथाम हो सकता है। चिकित्सा जगत में रेबीज़ का आज भी कोई इलाज नहीं है।

क्यूँ होता है रेबीज़ का निवारण महँगा?

अगर किसी व्यक्ति को पागल कुत्ता या अन्य जानवर काट देता है तो उस मरीज़ को दो तरह के इंजेक्शन लगते हैं । एक वैक्सीन और दूसरा सीरम । पहले वैक्सीन नहीं मिलती थी तो इस वजह से लोग मर जाते थे । इसके लिए वैक्सीन को सस्ता किया गया। फिर ये देखा गया कि मरीज़ वैक्सीन तो लगा रहें हैं पर सीरम के इंजेक्शन नहीं लगा रहें हैं।

सीरम घोड़े अथवा इन्सान के खून से बनता है और इसको बनाने की प्रक्रिया भी बहुत जटिल होती है, जिसके चलते इसका मूल्य ₹30,000 से ₹35,000 तक पहुँच जाता है । महँगा होने के कारण कुछ चुनिंदा अस्पताल ही इसे आवश्यक मात्रा में ख़रीद पाते थे। कई बार एक ही मरीज़ में इतना सीरम लगा दिया जाता था कि बाकी मरीज़ों के लिए बच नहीं पाता था। इस कमी के कारण काला बाज़ारी को भी प्रोत्साहन मिलता था, जिसके कारण ₹5,000 में बिकने वाला सीरम ₹9,000 में बिकता था । डॉ भारती के अनुसार, “इस कारण लोगों ने ₹50,000 से लेकर ₹60,000 तक भी रेबीज़ के निवारण पर खर्च किये हैं; और जो लोग इस कीमत को नहीं चुका पाते थे, वे मौत की भेंट चढ़ जाते थे।”

कैसे की डॉ ओमेश भारती ने रेबीज़ के निवारण की कीमत कम

कई वर्षों की मेहनत, समय, समीक्षा, पढ़ाई और अनुसंधान के बाद डॉ भारती ने पाया कि अगर सीरम को मांसपेशियों में ना लगाकर, सीधा घाव पे लगाया जाए और वैक्सीन के इंजेक्शन को भी सीधा त्वचा पर लगाया जाए तो अधिक सार्थक और सस्ता हो सकता है। डॉ भारती ने बताया:

“इस वजह से पहले के मुकाबले वैक्सीन पांच गुना, और सीरम 10 गुना कम इस्तेमाल होने लगा है। अब पूरे निवारण की कीमत में 100 गुना की कमी आई है । रेबीज़ के निवारण की लागत ₹35,000 से घट कर मात्र ₹350 रह गई है।”

अनुसंधान पूरा होने के बाद इस प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण किया गया और उस शोध-पत्र को ‘ह्यूमन वैक्सीन एंड इम्यूनोथेरेपियुटिक्स’ नामक चिकित्सकीय पत्रिका में प्रकाशन किया गया । इसका प्रकाशन होने के बाद WHO का इस पर ध्यान गया । डॉ भारती के अनुसार, “काफी विचार विमर्श और जाँच के बाद ही WHO की टीम ने विशेषज्ञ समूह बनाया । पूरे विश्व भर से 15 विशेषज्ञों की समिति को वो शोध-पत्र दिया गया । इसके बाद कई बैठकें हुई, मुझसे पूरे तथ्य मंगवाए गए। इतना कुछ होने के बाद ही पिछले महीने WHO ने पूरी दुनिया को यही इलाज करने की सिफारिश की है ।”

सन 2000 में जब डॉ भारती ने रेबीज़ के निवारण पर अनुसंधान करना शुरू किया था, तब उन्हें पता नहीं था कि ये सफलता उन्हें इस स्तर तक मिलेगी; और रेबीज के निवारण के लिए उनके द्वारा बनाया गया यह प्रोटोकॉल WHO पूरी दुनिया के मरीज़ों के लिए इस्तेमाल करने की सलाह देगा।

डॉ भारती, इसके अलावा भी कई अन्य प्रोजेक्ट्स पर अनुसंधान कर रहे हैं, जैसे सर्पदंश, कुष्ठ रोग और थैलीसिमिया। वे बताते हैं कि “ये रिसर्च अभी शुरूआती दौर में चल रहे हैं।”

Previous articleसरबजीत सिंह उर्फ़ ‘वेला बॉबी’ की 6 मार्मिक कहानियाँ जो दिल को दहला देती हैं
Next articleWhy you should choose Pabbar Valley as your next holiday destination

No posts to display