चम्बा फर्स्ट: ज़िले के पिछड़ेपन की वजह मैं, मेरा और मेरी की भावना

चम्बा के पिछड़ेपन के लिए शासकों को ज़िम्मेवार ठहराना कतई सही नहीं हो सकता

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चम्बा में डाक सेवा 1887 में शुरू कर दी गयी थी; चम्बा राज्य की डाक टिकटें

चम्बा ज़िले का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। इस बात के बहुत से साक्ष्य हैं। हम चाहे 1881 में खुले एशिया के पहले कुष्ठ रोग चिकित्सा केंद्र की बात करें, 1887 में शुरू हुई राष्ट्रीय डाक व्यवस्था की बात करें या फिर राष्ट्रीय राजधानी से भी दो वर्ष पहले 1910 में आई बिजली की ही बात करें, चम्बा हर क्षेत्र में अग्रणी था।

आमतौर पर राजतन्त्र को अच्छा नहीं माना जाता, जिसके कई कारण भी हैं। लेकिन, चम्बा के सन्दर्भ में यह एक विरोधाभास रहा है कि राजाओं के समय में जहाँ एक ओर चम्बा विकास की नित नयी इबारतें लिख रहा था, वहीं प्रजातंत्र के आते ही चम्बा में विकास एक लंबे वनवास पर चला गया। पांडवों को भी केवल 11 वर्ष अज्ञातवास भोगना पड़ा था; और मर्यादा पुरुषोतम प्रभु श्री राम को भी 14 वर्ष ही वनवास में बिताने पड़े थे। लेकिन चम्बा में अगर इन दोनों समय अवधियों को मिला भी लिया जाये, तब भी ये अवधि चम्बा के वनवास के आगे बौनी दिखाई देती है।

शासकों को कैसे ज़िम्मेवार मान लिया जाए चम्बा के पिछड़ेपन का?

अब इस विश्लेषण से एक बात पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी है और वो ये है कि चम्बा के पिछड़ेपन के लिए शासकों को ज़िम्मेवार ठहराना कतई सही नहीं हो सकता। कारण यह है कि क्या हमारे हाल फिलहाल के शासक (राजनेता) राजाओं से भी कम दक्ष हैं? वह भी उन राजाओं से, जिनका आधा समय भोग विलास में डूबा रहता था और आधा शिकार में। जिनका हर फैसला अपने राज पाठ को ध्यान में रख कर अधिक और जन सामान्य की अनिवार्यताओं को ध्यान में रख कर कम ही किया जाता था। जिनके पास अधिकार था किसी को भी किसी भी (फाँसी देने योग्य और फाँसी न देने योग्य) कृत्य के लिए फाँसी दे देने का। जिनके मुख से निकला हर शब्द (सही/गलत) कानून बन जाता था। इतनी ताकतवर स्थिति तो नहीं थी प्रजातंत्र में राजनेताओं (जन सेवकों) की। तो फिर शासकों को कैसे ज़िम्मेवार मान लिया जाए चम्बा के पिछड़ेपन का?

हिमाचल में और भी तो बारह ज़िले हैं। वो क्यों नहीं पिछड़े (चम्बा जितने) विकास की दौड़ में? वहाँ भी तो राजनेताओं ने ही शासन किया है। तो इसका जबाब है उनकी ‘हम भावना’।

उनमें व्यक्तिगत हितों को लेकर खींचातानी भले ही हो, लेकिन जब बात एक ज़िले के रूप में विकास की आती है तो उनकी ‘हम भावना’ अन्य सभी छोटी और बड़ी भावनाओं पर हावी रहती है। वहीं अगर बात करें चम्बा की तो यहाँ मैं, मेरा और मेरी की भावना ज़्यादा हावी है।

राजतन्त्र में चम्बा रौशनी में नहाता हो और प्रजातंत्र में उसी चम्बा के बाशिंदों को अपना भविष्य रौशनी की एक किरण से भी महरूम लगे तो इसमें गलती किसकी ?

राजतन्त्र में चम्बा में अगर शरीर की कुष्ठ रोग से मुक्ति हेतु चिकित्सालय खुला हो और प्रजातंत्र को आए इतना अरसा बीतने के बाद भी चम्बा के विकास को कुष्ठ रोग हो जाए तो इसमें ग़लती किसकी?

राजतन्त्र में अगर राष्ट्रीय डाक व्यवस्था से लोग आपस में जुड़े हों और प्रजातंत्र आते आते हम चम्बा के चम्ब्याल भी एक दूसरे से न जुड़े हुए हों तो इसमें ग़लती किसकी?

इसी तरह के दर्जनों सवाल हैं और सवालों का जबाब ढूँढता एक अकेला चम्बा। इस स्थिति पर मुझे उर्दू की दो पंक्तियाँ बिलकुल सटीक लगती हैं:

मैं (चम्बा) किस किस के हाथों में अपना लहू तलाश करूं
तमाम शहर ने पहने हुए दस्ताने हैं।

इन्हीं पंक्तियों के साथ ही मैं जोड़ना चाहूँगा:

चम्बा के शासकों से क्या मैं गिला करूं
जब खुद चम्ब्याल ही हुए चम्बा के लिए बेगाने हैं।

दो पक्ष: कौन सही कौन गलत?

बड़ी दुःख और पीड़ा के साथ मैंने ये पंक्तियाँ जोड़ी हैं और इसका कारण है चम्बा में वर्तमान में छिड़ी एक बहस कि चम्बा को पिछड़ा ज़िला घोषित करना वरदान है या अभिशाप ?

तर्क दोनों पक्षों (जो इस का समर्थन करते हैं वो भी और जो नहीं करते वो भी) से आ रहे हैं और दोनों के तर्कों में दम भी बहुत है।

एक कहता है की आधुनिकता की इस दौड़ में पिछड़ा घोषित होने पर खुशी मनाना बेवकूफी है, तो दूसरा कहता है कि इससे चम्बा का पुनर्विकास होगा।

एक कहता है कि वर्तमान समय के शासक कुछ नहीं कर रहे, तो दूसरा पिछले शासकों से उनका हिसाब मांगने में लग जाता है।

एक चम्बा को पिछड़ा घोषित करने को लेकर शासकों की नीयत पर सवाल उठा रहा है तो दूसरा इस पिछड़ेपन को लेकर पहले की नीतियों को कठघरे में खड़ा कर रहा है।

लेकिन सोचने और समझने वाली बात यह है कि यह सवाल कौन पूछ रहा है और किससे? इसका जबाब है एक चम्ब्याल एक चम्ब्याल से।

हमारा ध्यान इस ओर नहीं है कि हम पिछड़ेपन की समस्या से कैसे लड़ें, कैसे पुनः अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करें, क्योंकि हमें अपनी वही मैं, मेरा और मेरी वाली भावना से ही लगाव है। सच को स्वीकार कर हमें आगे की चुनौतियों को हल करना चाहिए।

सैद्धान्तिक रूप से देखा जाये तो दूध को दूध और पानी को पानी कहना कोई गलत बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन, बस फट्टी लगा दी जाए और उसके बाद कुछ नहीं तो यह भी कोई अच्छी बात नहीं। हमें इससे आगे बढ़ कर कुछ कर के दिखाना होगा, तभी न्याय होगा चम्बा के भूमि से। नहीं तो एक ऋण सदैव सदैव के लिए हमारे माथे पर चढ़ा ही रहेगा।

वास्तविकता को स्वीकारे चम्ब्याल

वास्तविकता को कोई जितनी जल्दी स्वीकार कर ले यह उसके लिए उतना ही अच्छा रहता है। चम्बा में विकास तो हुआ है। लेकिन, क्या आज भी चम्बा पिछड़ा नहीं है ? क्या आज भी यहाँ उन मूलभूत सुविधाओं की कमी नहीं है जिन पर हर आम आदमी का अख्तियार होना चाहिए? क्या आज भी यहाँ सम्पर्क, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति और अन्य कई क्षेत्र विकास का वनवास नहीं काट रहे हैं?

तो ऐसे में अगर कोई भी हमें आईना दिखाता है तो हमें वास्तविकता को सहजता से स्वीकारना है। हाँ मैं मानता हूँ की हम पिछड़े हैं विकास में। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ की यह तस्वीर बदल सकती है। लेकिन सिर्फ पिछड़ेपन का तमगा लगा देने से नहीं; और न ही सिर्फ बड़े आर्थिक पैकेज के मिल जाने से। बल्कि तस्वीर बदलेगी जनमत से, जन जागरण से। लोगों को अपनी आवाज़ को नीति निर्माताओं तक पहुँचाना होगा।

जैसा कि मैंने पहले भी ज़िक्र किया की चम्बा के पिछड़ेपन का कारण इसके शासक नहीं, बल्कि यहाँ की मूकदर्शक जनता है, जिसने कभी अपने हितों की रक्षा के लिए आवाज़ नहीं उठाई और अगर कुछ गिने चुने लोगों ने आवाज़ उठाने की कोशिश भी की तो उनकी कोई भी सहायता बाकी की आवाम ने नहीं की।

राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की यह पंक्तियाँ, “क्या थे क्या हो गये और क्या होंगे अभी” वर्तमान में हम च्म्ब्यालों के लिए एकदम सटीक बैठती हैं; और हमें अब जागना ही होगा, नहीं तो बड़ी देर हो जाएगी। समय किसी के लिए नहीं रुकता। हमें समय की लगाम को पकड़ कर उसके साथ साथ चलना पड़ता है।

अभी भी अवसर है हम अपने अंदर की मैं, मेरा और मेरी की भावना को उखाड़ बाहर फेंके और ‘हम भावना’ को पोषित कर एकता की मिसाल कायम कर अपने ज़िले को इस बदनुमा दाग से छुटकारा दिलाएं ताकि, हमारी आने वाली पीढ़ी को पिछड़ेपन का यह दाग विरासत में न मिले।

अंत में बस यही कहना चाहूँगा:

अक्सर लोग कहते हैं तख्त बदल दो ताज बदल दो
मैं कहता हूँ ऐ तख्तों ताज बदलने वालों
ये अंदाज बदल दो।
बदलेगा नहीं चम्बा हमारा यूँ शोर मचाने से
चम्बा तो बदल सकता है हम सब के बदल जाने से
मेरे बदल जाने से आपके बदल जाने से।

जय हिन्द।।

चम्बा फर्स्ट अभियान से जुड़ें

यह अतिथि लेख #ChambaFirst (चम्बा फर्स्ट) अभियान के तहत लिखा गया है। भारत सरकार द्वारा चम्बा को पिछड़े जिलों की सूची में शामिल किये के जाने के बाद, से चम्बयालों द्वारा चम्बा रीडिस्कवर जैसे अभियान यहाँ की सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये जा रहे हैं। उनके इस अभियान में हिमवाणी भी चम्बा फर्स्ट (#ChambaFirst) नामक अभियान चलाकर कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहा है।

इस अभियान के तहत हम आप तक चम्बा के अलग अलग पहुलओं को लाते रहेंगे। हमारा प्रयास रहेगा की हम जनता के विचार एकत्रित कर, चम्बा को पिछड़ेपन के खिताब से मुक्त कराने हेतु, रीडिसकवर चम्बा के साथ मिल कर एक श्वेत पत्र लाएं जिसमें चम्बा के विकास के लिए विचार प्रस्तुत होंगे।

आप अपने विचार, लेख, हिमवाणी को editor[at]himvani[dot]com पे भेज सकते हैं। इसके इलावा Facebook और Twitter द्वारा भी अपने विचार रख सकते हैं। जब भी आप अपने विचार प्रकट करें, #ChambaFirst टैग का अवश्य इस्तेमाल करें, जिससे सारी कड़ियाँ जुड़ सकें।

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युद्धवीर टंडन (कनिष्ठ आधारभूत शिक्षक रा. प्रा. पा. अनोगा) गावं तेलका जिला चम्बा हि. प्र.

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